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________________ ध्येय और मूल्यकी समस्याके लिए कोई भी स्थान न रहेगा । अपने पुरातन तत्त्वज्ञो द्वारा मान्य चतुर्विध पुरुषार्थ मे से अर्थ और काम तो हमारे प्रभु वन गए है और धर्म अदृष्टसे विच्छिन्न सवध हो स्थायी नियम (Positive Law) हो गया है तथा मोक्ष की नगण्य अवस्था हो गई है । मानव चेतनाकी ऐसी स्थितिमे क्या यह पुस्तक आधुनिक विचारशैली सुधारने के लिए कोई मार्ग प्रस्तुत कर सकती है ? यदि दर्शनका अर्थ प्राचीनकालके सदृश जीवन पथकी ओर प्रवृत्ति करना (Way of life) है, तो इसका उत्तर "हा" ही होगा । बौद्ध और वेदात दर्शनके समान जैनदर्शनके विषयमे भी यह वात सत्य चरितार्थं होती है । इन दर्शनोके मौलिक सिद्धात थे कि मनुष्य ही मन है और उसका वास्तविक स्वरूप विचारकता है, जो मुख्यतया नैतिक है। इसी भूमिकापर उन्होने विचारपूर्ण जीवनके लिये मानसिक शिक्षणकी प्राथमिक आवश्यकता बतलाई। उन्होने अतर्मानवकी पूर्णता में ही उन्नतिका स्वरूप माना था इस युगमें उन्नतिका क्या अर्थ है ? टाइनवी (Toynbee ) के शब्दो वौद्धिक दक्षता एव शोधन विधिका विकास, जो मानवसृजन पद्धति तथा प्रकृतिकी प्रसुप्त शक्तियोपर अधिकार प्राप्ति में सहायता देती है, उन्नति है । उन्नतिकी इस कल्पनाने मनुष्य जातिको उस श्रेणीपर पहुचा दिया है, जहा युद्ध एवं जीव-वध समन्वित प्रतिस्पर्धा और द्वन्द्वकी प्रधानता है । इस स्थिति के निवारणका क्या उपाय है ? संभवत. समय समयपर मनुष्य द्वारा किए गए जीवन- चित्रके गंभीर निरीक्षणसे इसके प्रतीकार का उपाय प्राप्त हो सकता है । सभ्यता के उप काल से ही मानव अस्तित्वकी समस्या के सवधमें विविध - विचार - पद्धतिया विद्यमान रही है, जिनमे एक तो आधुनिक
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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