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________________ भूमिका [हिन्दी अनुवाद मैने इस पुस्तक के विद्वान् लेखकके भूमिका लिखनेके स्नेहपूर्ण आमत्रणको वड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। यह पुस्तक सन् १९४७में प्रथम बार प्रकाशित हुई थी। उसका तीन वर्षमे ही द्वितीय सस्करण मद्रित होना विद्वान् लेखकको योग्यता तथा रचनाके व्यापक आकर्षणके स्पष्ट प्रमाण है। __ हम ऐसे युगमें है, जिसमें मानव अत करणपर धर्मका आकर्षण शिथिल हो गया है । विज्ञान तथा शिल्पकलाके द्रुतविकासके कारण धर्म का स्थान उस तर्कने ले लिया है, जो वस्तुत विचार शक्तिका पर्यायवाची है । ऐसा माना जाता है कि कार्य कारणका नियम, जो भौतिक जगत्में अव्याहत गतिसे प्रवृत्ति करता है, वह उसी सामर्थ्य और व्यापकतापूर्वक मानसिक क्षेत्रमें भी चरितार्थ होता है, इसका कारण यह सिद्धात है कि मन व्यवस्थित जड़ पदार्थ जन्य है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारा नीति-शास्त्र उपयोगितावादी और मनोविज्ञान व्यवहारवादी (Behaviouristic) बन गए है। विज्ञान की सहायतासे हम अपनी आधिभौतिक आवश्यकताओ और आकाक्षाओं की पूर्ति निमित्त मनुष्य जीवन के ध्येयपर तनिक भी ध्यान न दे निरतर साधन पर साधन सचित करनेमे सलग्न है। पदार्थ क्या है ? श्री वर्टरड रसिल (Bertrand Russel) के सक्षिप्त व्यंगात्मक शब्दो में अपनी अभावात्मक अवस्थामें जो होता है उसे समझानेका सुलभ सूत्र पदार्थ (Matter) है । यह तो शुद्ध और स्पष्ट नास्तिकवाद है । ऐसे दर्शनमे तो अपनी शारीरिक आवश्यकतामो की शीघ्र पूर्ति, धनसचय एव शक्ति-अर्जनके अतिरिक्त जीवनके
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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