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________________ अहिसाके आलोक में १५६. अन्दर दोनो आवश्यक है। इनके विना ससार नही चल सकता | माता अपने वक्षस्थलसे वच्चेको दूध पिलाती है, उसके इस त्यागमे अहिंसा जरूर है परन्तु जिस समय उसपर कोई दूसरा आक्रमण करनेके लिए आता है तो वह मुकाबलेपर हिंसाके लिए तैयार हो जाती है। इस प्रकार हिंसा-अहिसा दोनो एक स्थानपर विद्यमान है | समस्त सृष्टि हिसा-अहिंसा पर खडी है, इससे तो यह प्रतीत होता है कि माता जो आक्रमणकारीकी हिसाके लिए उतरती है, वह उचित है ।" इस प्रसगमे जैन गृहस्थकी दृष्टिसे यदि हम विचार करे तो आक्रमणकारीके मुकाबलेके लिए माताका पराक्रम प्रशसनीय गिना जाएगा, उसे विरोधी हिंसाकी मर्यादाके भीतर कसना होगा जिसका गृहस्थ परिहार नही कर सकता। आगे चलकर श्रीसावरकर सकल्पी हिंसाको भी उचित बताते है । उसका वैज्ञानिक अहिसक समर्थन नही करेगा । वे कहते है - "यदि में चित्रकार होता, तो ऐसी शेरनीका चित्र बनाता, जिसके मुहसे रक्तकी विन्दु टपकती होती । इसके अतिरिक्त उसके सामने एक हिरन पडा होता, जिसे मारनेके कारण उसके मुँह मे रक्त लगा होता। साथ ही वह अपने स्तनोसे बच्चेको दूध पिला रही हो । ऐसा चित्र देखकर आदमी झट समझ सकता है कि दुनियाको चलाने के लिए किस प्रकार हिंसा-अहिंसाकी आवश्यकता है। हिंसा-अहिंसा एक दूसरे पर निर्भर है।"" यह चित्र पराक्रमी अहिसककी वृत्तिका अवास्तविक चित्रण करता है। सच्चा अहिसक अपने पराक्रमके द्वारा दीन-दुर्बलका उद्धार करता है, उस पर आई हुई विपत्तिको दूर करता है । दीन पर अपना शौर्य प्रदर्शन करनेमे अत्याचारीकी आभा दिखाई देती है। बेचारा मृग असमर्थ है, कमजोर हैं; किन्तु है पूर्णतया निर्दोष । उसके रक्तसे रञ्जित शेरनीका १ "विशालभारत", सन् ४१ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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