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________________ १५२ जैनगासन अखण्डताके रक्षार्थ लडा जानेवाला युद्ध न्यायपर अधिप्ति है अत. नुझे उसले दुःख नहीं है।'' यह सोचना कि विना सेना अस्त्र-शस्त्रादिने अहिसात्मक पद्धतिचे राष्ट्रका सरसग और दुष्टोका उन्मूलन हो जाएगा, असम्यक् है। भावना के आवेगमे ऐसे स्वप्न सानाज्य तुल्य देशकी मधुर कल्पना की जा सकती है, जिनमे फौज-पुलिस आदि दण्डके अंग-प्रत्यंगोका तनिक भी सद्भाव नहीं हो। अहिंसा विद्याके पारदर्नी जैन-तीर्थकरों और अन्य तत्त्षोने मानव प्रकृतिको दुर्वलताओको लक्ष्यमे रखते हुए दण्ड नीतिको भी आवश्यक बताया है। रागारवान तमे दिया गया यह पच जैन दृष्टिको सप्ट गब्दो ने प्रकट करता है "दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामुच रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे व यया दोषं समं धृतः॥"४, ५। राजाके द्वारा नत्रु एव पुत्रमे दोषानुसार पनपातके विना-समान रूपसे दिया गया दण्ड इस लोक तथ परलोककी रक्षा करता है। इसमें सन्देह नहीं है कि कर्मभूमिके अवतरणके पूर्व लोग मन्दकपायी एव पवित्र मनोवृत्तिगले थे इसलिए निष्टसरमण तया दुष्ट-दमन निमित्त दप्रयोग नहीं होता था; किन्तु उत्त सुवर्ण युगके अन्सानके अनन्तर दूपित अन्त करगवाले व्यक्तियोकी वृद्धि होने लगी, अत सार्वजनिक कल्याणार्थ दण्ड-प्रहार आन्श्यक अग बन गया, कारण दड-प्राप्तिके भयले लोग कुमार्गमे स्वयं नहीं जाते। इसी कल्याण नावको दृष्टिमे रख भगवान् वृण्मनाथ तीर्थकर सदृन अहिंसक सस्कृतिके भाग्य-विधाता महापुत्पने दण्ड वारण करनेवाले नरेनोकी सराहना की, कारण इतके आधीन जगत्के योग और क्षेमकी व्यवस्था बनती है। महापुराणकार आचार्य जिनसेनने कहा है १ 'युगधारा' मासिक, मार्च, ४८, पृ० ५२६ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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