SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनशासन वास्तवमे "शमो हि भूषणं यतीना न तु भूपतीनाम्" यह अहिंसको की दृष्टि रही है । शरीर और आत्माको भेद - ज्ञान ज्योतिके प्रकाशमें पृथक्-पृथक् अनुभव करनेवाला अन्तरात्मा सम्यक्त्वी कर्त्तव्यानुरोधसे मत्र-तत्र यत्र आदिकी सहायता ले - अपना सर्वस्व तक अर्पण कर वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु, धर्मके आयतन आदिकी रक्षा करनेमे उद्यत रहता है । पचाध्यायीमे लिखा है · • " वात्सल्य नाम दासत्वं सिद्धार्ह द बिम्बवेश्मसु । सधे चतुविधे शास्त्रे स्वामिकायें सुभृत्यवत् ॥ प्रर्थादन्यतमस्योच्चैरुद्दिष्टेषु सुदृष्टिमान् । सत्सु घोरोपतर्गेषु तत्परः स्वात्तदत्यये ॥ यद्वा न ह्यात्मसामर्थ्य यावन्मन्त्रासिकोशकम् । ताबद् द्रष्टु ं च श्रोतुं च तद्बाधा सहते न सः ॥" ८०८-१० सिद्ध, अरिहन्त भगवान्‌की प्रतिमा, जिनमन्दिर, मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका रूप चतुविध सघ तथा शास्त्रकी रक्षा, स्वामीके कार्य मे तत्पर सुयोग्य सेवकके समान करना वात्सल्य कहलाता है । इनमे से किसी पर घोर उपसर्ग होनेपर सम्यग्दृष्टिको उसे दूर करनेके लिए तत्पर रहना चाहिए। अथवा जब तक अपनी सामर्थ्य है तथा मत्र, शस्त्र, द्रव्यका वल है, तब तक वह तत्त्व-ज्ञानी उन पर आई हुई बाधाको न देख सकता है और न सुन सकता है। सोलहवे तीर्थकर भगवान् शान्तिनाथने अपने गृहस्थ जीवनमे चक्र - वर्तीके रूपये दिग्विजय की थी। स्वामी समन्तभद्रने बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र क्या ही मार्मिक वर्णन किया है "चक्रेण यः शत्रुभयङ्करेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जगाय महोदयो दुर्जयमोह चक्रम् ॥” अर्थात् जिन शान्तिनाथ भगवान्न े सम्राट्के रूपमे शत्रुओके लिए १५०
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy