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________________ १३२ जैनगासन होता है उसके प्रभावसे यह जीव अभय और आनन्दकी नवीन ज्योतिको इस अधकारपूर्ण जगत्मे प्रकाशित कर सकता है। . इस श्रेष्ठ साधनाके पवित्र पथपर चलने योग्य जबतक आत्मामे बल उत्पन्न नहीं होता तबतक प्राथमिक साधकका कर्तव्य है कि वह अपने आदर्शको हृदयमे रख साधुत्वसे अकित सत्पुरुषोको अपने जीवनका पथप्रदर्शक माने और उनको अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए अन्त करणसे कहे "णमो लोए सव्वसाहूर्ण" अहिंसा के आलोक में 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' -स्वामी समन्तभद्र, बृहत्स्वयम्भू, ११६ पुण्य-जीवनको यदि भव्य-भवन कहा जाए तो अहिंसा-तत्त्वज्ञानको उसकी नीव मानना होगा। अहिंसात्मक वृत्तिके विना न व्यष्टिका कल्याण है और न समष्टिका । साधनाका प्राण अथवा जीवन-रस अहिंसा है। आज भारतीय राष्ट्रमे अहिसाकी आवाज खूब सुनाई पड़ती है। देशनै पराधीनता के पाशसे छूटनेके लिए अपनी किंकर्तव्यविमूढ अवस्थामे अहिंसात्मक पद्धतिको एकमात्र अवलम्वन माना था। और इसीलिए रक्तपातके विना राष्ट्रने प्रगतिके पथपर द्रुतगतिसे अपना कदम वढाया और स्वाधीन भी हो गया। फासके विश्वविख्यात विद्वान् रोम्यां रोलां इस अहिंसाके विषयमे बहुत उपयोगी तथा प्रबोधप्रद बात कहते "The Rishis who discovered the Law of Nonviolence in the midst of violence were greater geniuses than Newton, greater warriors than Wellington Nonviolence
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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