SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवुद्ध-साधक ११५ "जगत-जन जूवा हारि चले। काम कुटिल सग बाजी' माडी उनकरि कपट छले ॥ चार कषायमयी जहँ चौपरि, पासे जोग रले। इस सरवस, उत कामिनि-कौड़ी, इह विधि झटक चले। कूर खिलारि विचार न कोन्हो, है है ख्वार भले । विना विवेक मनोरथ काके, 'भूधर' सफल फले ॥" जगत्के प्राणी कनक, कामिनी आदिमे अपनेको कृतार्थ मानते है, किन्तु, साधककी स्थिति इससे निराली है। मृत्युके नामसे जहा दुनिया घवराती है, जीवनकी ममतावश जहा किये गये बड़े से बडे अनर्थ क्षम्य माने जाते है, वहा साधक मृत्युको अपना स्नेही तथा परम मित्र मान मृत्यु-कालको महोत्सव मानते है। मरणके समय साधक सोचता है "यह तन जीर्ण कुटी सम आतम, याते प्रीति न कीजै । नूतन महल मिल जब भाई, तब या क्या छीजै ॥" आत्माकी अमरतापर विश्वास होनेके कारण अपने उज्ज्वल भविष्य का विश्वास करते हुए भावी जीवनको जीर्ण-कुटीके स्थानपर भव्य-भवनः मानता है । वह पूछता है "भृत्यु होनेसे हानि कौन है ?-याको भय मत लायो । समतासे जो देह तजे तो-तो शुभ-तन तुम पाओ ॥ मृत्यु मित्र उपकारी तेरो-इस अवसरके माही। जीरण तनसे देत नयो यह, या सम साहू नाहीं ।। या सेती इस मृत्यु समय पर उत्सव अति ही कीजै । क्लेश भावको त्याग सयाने समता भाव धरीजै ॥" अपनी आत्माको उत्साहित करते हुए साधक सोचता है "जो तुम पूरब पुण्य किये है, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु-मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग-सम्पदा भाई॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy