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________________ ११४ जनशासन उद्यम-दास, विवेक-सहोदर, बुद्धि-कलत्र शुभोदय-दासी । भावकुटुम्ब सदा जिनके ढिग यो मुनिको कहिये गृहवासी॥" -बनारसीविलास, २०५६ यद्यपि मुनि भूमिपर शयन करते है और जीवदयानिमित्त मयूरकी पिच्छी और शुचिताका उपकरण कमण्डलु रखते है, फिर भी कवि-जन मनोहर भाषामे उनकी सामग्रीको इस प्रकार व्यक्त करते है विध्याद्रिनगरं गुहा वसतिकाः शय्या शिला पार्वती दीपाश्चन्द्रकरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनागना। विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषां प्रशान्तात्मनां धन्यास्ते भवपकनिर्गमपथप्रोद्देशकाः सन्तु नः ॥" ज्ञानार्णव । शुभचन्द्र अहिंसा पालनार्थ ये मुनिजन वर्षाकाल एक स्थान पर व्यतीत करते है। इस सम्वन्धमे 'विद्युन्माला' छन्दमें लिखा गया यह पद्य कितना मधुर है जैनो जोगी वर्षाकाले । आपा ध्यावे वाधा टाले। कूके केको मेघ ज्वाला । चौधा नच्चै विद्युन्माला॥ -छन्दशतक १४ वे सन्त-जन कर्मोके फन्देमे फँसकर अपना अहित नहीं करते। कर्मोने इस जगत्मे क्रोधादि कषायरूपी चौपडका खेल जमाया है। उस खेलके चक्करसे दिगम्बर जैन मुनि वचे रहते है। किन्तु, जगत्के अन्य प्राणी उस खेलमं आसक्तिपूर्वक भाग लेते है तथा हारकर पीछे रोतेपछताते है । भूधरदासजी कहते है१ "जे बाह्य परवत वन वसै गिरि-गुफा-महल मनोग । सिल-सेज, समता-सहचरी, शशिकिरन-दीपक जोग । मग-मित्र, भोजन-तपमयी, विज्ञान-निरमल नीर । ते साधु मेरे उर वसौ, मम हरहु पातक पीर ॥" -भूधरदास
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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