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________________ जैनशासन बबई प्रान्तके कोपरगाव नामक स्थानपर एक नग्न दिगम्बर मुसलिम साधुको समाधिस्थल मोजूद है। दिगम्बर जैन साधुका पद वस्त्रमात्रका परित्यागकर स्वच्छन्द विचरण करनेवालेको नही प्राप्त होता । उस महापुरुषका जीवन अत्यन्त सयत और सुव्यवस्थित रहता है। वे किसी भी प्राणीका घात नही करते, यद्यपि उनके गमनागमन, श्वासोच्छवास आदिमे प्राणिघात अनिवार्य है, तथापि यथाशक्ति राग-द्वेष आदि विकारोको दूरकर आत्म-निर्मलताका • पूर्णतया रक्षण करते है । श्रेष्ठ रीतिसे सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्यं महाव्रतका भी परिपालन करते है । वे मन, वचन, harat प्रवृत्तिको सहसा रोकनेमे असमर्थ हो, गमनागमन और भाषण के -सम्बन्धमे इस प्रकार प्रवृत्ति करते है "परमाद तज चौ-कर- मही लख समिति ईर्ष्या तें चलें । जग सुहितकर सब अहित हर श्रुति सुखद सब संशय हरे । भूम-रोग हर जिनके वचन मुखचन्द्र तें अमृत झरे ॥” आहार सम्बन्धी एषणा नामक समितिका वे विशेष ध्यान रखते है । अत P १०६ " छ्यालीस दोष बिना सु-कुल श्रावकत घर असनको । ल तप बढ़ावन हेत नहि तन पोषते तज रसनको ॥" वे ग्रथ सदृश ज्ञानकी सामग्री, शौचसम्वन्धी कमण्डलु एव जीवदया निमित्त मयूर पखोसे बनी हुई पिच्छीको विवेकपूर्वक अहिंसात्मक रीति से 'उठाते-धरते हैं | मलमूत्रादिकका जन्तु - रहित भूमिमे परित्याग करते है - " शुचि ज्ञान सजम उपकरन लखि के गहे लखि के धरे । निर्जन्तु थान विलोकि तन मल-मूत्र श्लेषन परिहरे ।।" वे पाचो इन्द्रियोके विषयोमे राग-द्वेषका परित्याग करते है। केश चढने पर मस्तकमे जू" आदिकी उत्पत्ति होती है और केशोको कटानेके लिए नाई आदिकी आवश्यकता पडती है । इसके लिए अर्थकी अपेक्षा
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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