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________________ १०४ जैनगासन श्रमणको सब परिग्रह छोडना चाहिए। त्याग निरपेक्ष नहीं होता, वस्त्रादि परिग्रह छोडे विना भिक्षुके चित्तमें निर्मलता नहीं होती। अ-विशुद्ध चिनके होनेपर कैसे कर्मक्षय होगा? अत परिग्रहके होने पर ममत्व आरम्भ अथवा असयम क्यो नही होगे? तव परद्रव्यमें आसक्त हुबा माधु किस प्रकार आत्म-साधना कर सकेगा? जन गुनओकी दिगम्बरत्व सम्बन्धी मान्यताको वास्तविक रूपसे न समझनेके कारण कोई यह समझते है कि दिगम्बर धर्मानुयायी गृहस्यो को भी कम-मे-कम आहार लेते समय दिगम्बर रहना चाहिए। इसके विपरीन जो मदा सवस्त्र रहें उन्हें श्वेताम्बर कहते है। इन्साइक्लोपीडिया जिन्द १५,११ वें सस्करणके पृ० २८ में पूर्वोक्त भूम इन शब्दोमें व्यक्त किया गया है-"The Jains themselves have abandoned the practice; the Digambaras being sky-clad at meal time only and the Swetambaras being always completely clothed.” ___ तात्त्विक बात तो यह है कि दिगम्बर माधु और दिगम्बर मूर्तिको पूजनेके कारण गृहस्थ दिगम्बर जैन कहे जाते है । सम्पूर्ण अहिंसाके धारक जितेन्द्रिय मुनिके मित्राय गृहस्थ मुनिमुद्रा धारण नहीं करता। गृहस्थके वस्त्र पहननेकी तो बात ही क्या, वह नीतिमत्तापूर्वक बडे-बडे साम्राज्य तकका मरक्षण करता है। अग्रेजी भाषाका महाकवि शेक्सपियर अपने हेमलेट नाटकमें लिखता है-"Give me the man, that is not passion's slave." मुझे ऐमा मनुष्य वताओ जो वासनाओका दास न हो। किय तम्हि गत्यि मुच्छा प्रारम्भो वा असंजमो तस्स । तर परदबम्मि रदो कदमप्पाणं पसाधयदि ॥" ( अध्याय ३।१६-२०-२१) १ Act III Se II. -
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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