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________________ जनशासन विनोत्पूर्ण भापामे एक स्वर्गीय जैन विद्वान इस प्रकार समझाते थे-- "चालीस सेरका एक मन होता है इसे तो वच्चा-बच्चा भी जानता है। इसी प्रकार चालीस सेर नही गेर ( Tiger ) से अधिक आत्मीक शक्ति रखनेपर मनको जीतनेको समर्थ हो सकता है।' सावक आत्मदर्शनके द्वारा भौतिक पदार्थोकी निज स्वरूपसे भिन्नताको समझते हुए और इसी तत्त्वको हृदयगम करते हुए अपनी आत्माको राग, द्वेष, मोह, क्रोध -मान-माया-लोभ आदि कलकोसे निर्मल करनेके लिए जो प्रयत्न प्रारम्भ करता है, यथार्थमे वही सदाचार है, वही सयम है और उसे ही सम्यक्चारित्र कहते है। इसके विना मुक्ति-मार्गके लिए मुमुनु पूर्णतया पगु है। स्वामी समन्तभद्र कहते है___ “मोहल्पी अन्धकारके दूर होनेपर दर्शन-शक्तिको प्राप्त करनेवाला तत्त्वनानी सत्पुरुष राग, द्वेष दूर करनेके लिए चारित्रको धारण करता है। राग-द्वेषके दूर होनेसे हिंसादिक पाप भी अनायास छूट जाते है।" वे यह भी लिखते है कि-"हिंसा, झूठ, चोरी, कुगील और परिग्रह रूप पापके कारणोसे जीवका विमुख होना चारित्र है। आचार्य अमृतचन्द्र' सम्पूर्ण पापोंके परित्यागको चारित्र कहते है और बताते है कि कपायविमुक्त, उदासीन, पवित्र आत्मपरिणतिस्वरूप चारित्र है। हिंसा आदिका पूर्णतया परित्याग करनेमें असमर्थ प्राथमिक सावकके लिए उनका आंगिक परित्याग आवश्यक है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमे अमृतचन्द्र स्वामी कहते है-3 झूठ, चोरी आदिमें आत्माकी निर्मल मनोवृत्तिके १ रत्नकरण्डश्रावकाचार ४७।। २ "चारित्र" भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥३६॥" ३ "आत्मपरिणामहिसनहेतुत्वात्, सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिप्यबोधाय ॥ ४२ ॥" -पुरुषार्थसिद्धयुपाय।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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