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________________ ६८ जैनशासन इस प्रकार अपने स्वरूपको भूलनेवाला 'वहिरात्मा' 'मिथ्यादृष्टि' अथवा 'अनात्मज्ञ' शब्दोसे पुकारा जाता है। अनात्मीय पदार्थोमे आत्मत्रुद्धि धारण करनेकी इस दृष्टिको अविद्या कहते है। अध्यात्मरामायणमें वताया ह "देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। नाह देहश्चिदात्मेति बुद्धिविद्येति भण्यते॥" 'मै शरीर हूँ' इस प्रकार शरीरमे एकत्वबुद्धि अविद्या कही गयी है। किन्तु 'मै गरीर नही हूँ', 'चैतन्यमय आत्मा हूँ यह बुद्धि विद्या है। ___ ऐसा अविद्यावान् , अज्ञानी, मोही प्राणी जितने भी प्रयत्न करता है, उतना ही वह अपनी आत्माको बधनमे डालकर दुखकी वृद्धि करता है। यद्यपि गब्दोसे वह मुक्तिके प्रति ममता दिखाता हुआ कल्याणकी कामना करता है, किन्तु यथार्थमे उसकी प्रवृत्ति आत्मत्वके ह्रासकी ओर हो जाती है। मुक्तिके दिव्य-मन्दिरमे प्रवेश पाकर शाश्वतिक शान्तिको प्राप्त करनेकी कामना करनेवालेको साधनाके सच्चे मार्गमे लगना आवश्यक है। इसके लिए आत्माको पात्र बनानेकी आवश्यकता है। इस पात्रताका उदय उस विमल तत्त्वज्ञानीको होता है, जो शरीर आदि अनात्मीय वस्तुओसे ज्ञान-आनन्दमय आत्माका अपनी श्रद्धासे विश्लेषण करनेका सुनिश्चय करता है। इस पुण्यनिश्चय अथवा श्रद्धाको सम्यक्दर्शन (Right Belief) कहते है। स्व-परके विश्लेषण करनेकी इस शक्तिसे सम्पन्न जीवको अन्तरात्मा कहते है। उसकी वृत्ति कमलके समान रहा करती है। जिस प्रकार जलके वीचमे सदा विद्यमान रहनेवाला कमल जल-राशिसे वस्तुत अलिप्त रहता है, उसी प्रकार वह तत्त्वज्ञ भोग और विषयोके मध्यमे रहते हुए भी उनके प्रति आतरिक आसक्ति नही धारण करता। दूसरे शब्दोमे कमलके समान वह अलिप्त रहता है। जैन सस्कृतिमे जिनेन्द्र भगवान्के चरणोके नीचे कमलोकी रचनाका वर्णन पाया जाता है। कमलासनपर विराजमान जिनेन्द्र इस वातके प्रतीक
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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