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________________ आत्म- जागरणके पथपर ६७ केवली भद्रवाहु मुनीन्द्रके सान्निध्यमे प्राप्त हुआ था। इसीलिए उनने अपने विशाल भारतके साम्राज्यको तृणवत् छोडकर आत्म-सतोष और ब्रह्मानन्दके लिए दिगम्बर अकिचन मुद्रा धारणकर श्रमणबेलगोलाकी पुण्य वीथियोको अपने पद चिन्होसे पवित्र किया था। जिस प्रकार लौकिक स्वाधीनताका सच्चा प्रेमी सर्वस्वका भी परित्याग कर फासी के तख्तेको प्रेमसे प्रणाम करते हुए सहर्ष स्वीकार करता है, उसी प्रकार निर्वाणका सच्चा साधक और मुमुक्षु तिल-तुष मात्र भी परिग्रहसे पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद कर राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकृतियोका पूर्णतया परित्याग कर शारीरिक आदि वाघाओ की ओर तनिक भी दृष्टिपात न कर उपेक्षा वृत्तिको अपनाकर, आत्मविश्वासको सुदृढ करते हुए सम्यक् ज्ञानके उज्ज्वल प्रकाशमे अपने अचिन्त्य तेजोमय आत्म-स्वरूपकी उपलब्धिनिमित्त प्रगति करता है। आत्मशक्तिकी अपेक्षा प्रत्येक आत्मा यदि हृदयसे चाहे और प्रयत्न करे, तो वह अनन्त शान्ति, अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान आदिसे परिपूर्ण आत्मत्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु मोह और विषयोकी आसक्ति आत्मोद्धारकी ओर इसका कदम नही बढने देती । मोहके कारण, कोईकोई आत्मा इतना अघ और पगु बन जाता है कि वह अपनेको ज्ञानज्योतिवाला आत्मा न मान जडतत्त्वसदृश समझता है। यह गरीरमे आत्मबुद्धि करके शरीरके ह्रासमे आत्माका ह्रास और उसके विकास में आत्म विकासकी अज्ञ कल्पना किया करता है । प्रवृद्ध कवि दौलतरामजीने ऐसे वहिदुष्टि आत्म-विमुख प्राणीका चित्रण करते हुए कहा है कि यह मूर्ख प्राय सोचा करता है "में सुखी दुखी में रंक राव । मेरे गृह धन गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुत तिय में सबल - दीन । बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ॥ तन उपजत अपनी उपज जान । तन नसत श्रापको नाश मान ॥ रागादि प्रकट ये दुःखदैन । तिनही को सेवत गिनत चैन ॥ शुभ अशुभ बंधके फल मभार । रति श्ररति करै निजपद विसार ॥" - छहढाला
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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