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________________ विश्व-स्वरूप जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश सत्तायुक्त होकर बहुत प्रदेशवाले है, इसलिए, इन्हे अस्तिकाय कहते है। काल द्रव्यको अस्तिकाय नही कहा है, क्योकि वह परस्पर असम्बद्ध पृथक् पृथक् परमाणुरूप है। धर्म, अधर्म और आकाश तथा कालमे एक स्थानसे दूसरे स्थानमे गमनागमनरूप क्रियाका अभाव है इसलिए इन्हे निष्क्रिय कहा है । आकाशके जिस मर्यादित क्षेत्रमे जीवादि द्रव्य पाये जाते है, उसे 'लोकाकाश' कहते हैं और शेप आकाशको 'अलोकाकाश' कहते है । एक परमाणु द्वारा घेरे गये आकाशके अशको प्रदेश कहते है। इस दृष्टिसे नाप करनेपर धर्म, अधर्म तथा एक जीवमे असख्यात प्रदेश वताये गये है। जीवका छोटे-से-छोटा शरीर लोकके असख्यातवें भाग विस्तारवाला रहता है। जैसे दीपककी ज्योति छोटे-बडे क्षेत्रको प्रकाशित करती है अर्थात् जो ढंका हुआ दीपक एक घड़ेको आलोकित करता है, वही दीपक आवरणके दूर होनेपर विशाल कमरेको भी प्रकाशयुक्त करता है। इसी प्रकार अपनी सकोच-विस्तारशक्तिके कारण यह जीव चिउँटी-जैसे छोटे और गज-जैसे विशाल शरीरको धारण कर उतना सकुचित और विस्तृत होता है। यह वात प्रत्यक्ष अनुभवमे भी आती है कि छोटे-बड़े शरीरमें पूर्णरूपसे आत्माका सद्भाव रहता है। अत यह दार्शनिक मान्यता कि-या तो जीवको परमाणुके समान अत्यन्त अल्प-विस्तारवाला अथवा आकाशके समान महत्-परिमाणवाला स्वीकार करना चाहिए, अनुभव और युक्तिके प्रतिकूल है। उन लोगोकी ऐसी धारणा है कि आत्माको यदि अणु और महत्-परिमाणवाला न माना गया तो वह अविनाशोपनेकी विशेषतासे रहित हो जाएगा। इस विचार-धाराकी आलोचना करते हुए जैन दार्शनिकोने कहा है कि अणु या महत्-परिमाणवाला पदार्थ ही नित्य हो, अविनाशी हो और मध्यम परिमाणवाले पदार्थ विनाशशील हो, ऐसा कोई परिमाण १ वही सूत्र ४। २ अनंतवीर्य-प्रमेयरत्नमाला--पृ० १०७,८ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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