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________________ जैनशासन वैशेषिकदर्शनकी नौ द्रव्यवाली' मान्यतापर विचार किया जाए, तो कहना होगा कि पृथ्वी, अप्, तेज, वायु नामक स्वतंत्र तत्त्वोके स्थानपर एक पुद्गलको ही स्वीकार करनेसे कार्य वन जाता है क्योकि उनमे स्पर्शादि पुद्गल के गुण पाये जाते है। दिक् तत्त्व आकाशसे भिन्न नहीं, आदि । जीव तथा पुद्गलमे क्रियाशीलता पायी जाती है। इनको स्थानसे स्थानान्तररूप क्रियामे सामान्य रूपसे तथा उदासीन सहायक रूपमें धर्म द्रव्य (Medium of Motion ) नामके माध्यमका अस्तित्व माना गया है । इसके विपरीत जीव और पुद्गलकी स्थितिमे साधारण सहायक माध्यमको अधर्मं द्रव्य (Medium of Rest ) कहा गया है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य जैन दर्शनके विशिष्ट तत्त्व है । जगत्- प्रख्यात सत्कर्म - असत्कर्म, पुण्य-पाप अथवा सदाचार - हीनाचारको सूचित करनेवाले धर्मअधर्मसे ये दोनो द्रव्य पूर्णतया पृथक् है । ये गमन अथवा स्थिति कार्य मे प्रेरणा नही करते, उदासीनतापूर्वक सहायता देते है । मछलियोको जलमे विचरण करनेमे सरोवरका पानी सहायक है, बलपूर्वक प्रेरणा नही करता । श्रान्त पथिकोको अपनी छायामे विश्रामनिमित्त वृक्ष सहायता करते है, प्रेरणा नही । इसी प्रकार धर्म-अधर्म नामक द्रव्योका स्वभाव है और यही उनका कार्य है' । I ६२ जीव आदि नवीनसे प्राचीन बननेरूप परिवर्तनका माध्यम 'काल' (Time) नामका द्रव्य स्वीकार किया गया है । सम्पूर्ण जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, कालको अवकाश - स्थान देने ( Localise ) वाला आकाश द्रव्य (Medium of Space) माना गया है। धर्म, अधर्म, आकाश ये अखण्ड द्रव्य है । जीव अनन्त है। पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त है । कालद्रव्य असख्यात अणुरूप है । कालको छोड .१ "पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनासि नवैव " २ ३ -- तर्कसंग्रह सू. २ " गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः । " - त० देखो, त० सूत्र (मोक्षशास्त्र ) अध्याय ५ सूत्र सूत्र ५ – १७ । २२,१८, ६ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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