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________________ १२० जैनसम्प्रदायशिक्षा | ( जहांतक होसके ) न करे, मलीन न रहे, विवाद (झगड़े ) का त्याग करे, दुर्गन्धि से दूर रहे, लूले, लंगड़े, काने; कुबड़े; बहिरे और गूंगे आदि न्यूनांग का तथा रोगी आदि का स्पर्श न करे और उन को अच्छी तरह से चित लगाकर देखे, घर में निर्द्वन्द्व (कलह आदि से रहित वा एकान्त ) स्थान में रहे, विशेष द्वंद्ववाले स्थान में न रहे, श्मशान का आश्रय; क्रोध; ऊंचा चढ़ना; गाड़ी घोड़ा आदि वाहन ( सवारी) पर बैठना; ऊंचे खर से बोलना; वेगसे चलना; दौड़ना; कूदना; दिन में सोना; मैथुन; जल में डुबकी मारना ( गोता लगाना ); शून्य घर में तथा वृक्ष के नीचे बैठना; क्लेश करना; अंग मरोड़ना; लोहू निकालना; नख से पृथिवी को करोदना अथवा लकीरें करना; अमंगल और अपशब्द ( बुरे वचन ) बोलना; बहुत हँसना; खुले केश रहना; वैर, विरोध, द्वेष, छल, कपट, चोरी, जुआ, मिथ्यावाद, हिंसा और वैमनस्य, इन सब बातों का त्याग करे- क्योंकि ये सब बातें गर्भिणी स्त्रीको और गर्म को हानि पहुंचाती है । स्मरण रहना चाहिये कि अच्छे या बुरे सन्तान का होना केवल गर्मिणी स्त्री के व्यय - हार पर ही निर्भर है इस लिये गर्भवती स्त्री को निरन्तर नियमानुसार ही वर्ताव करना चाहिये जो कि उस के लिये तथा उस के सन्तान के लिये श्रेयस्कर ( कल्याणकारी ) है | यह तृतीय अध्यायका - गर्भाधान नामक तीसरा प्रकरण समाप्त हुआ || चौथा प्रकरण - बालरक्षण || इस में कोई सन्देह नहीं है कि- सन्तान का उत्पन्न होना पूर्वकृत परम पुण्यकाही प्रताप है, जब पति और पत्नी अत्यन्त प्रीति के वशीभूत होते है तब उन के अन्तः- : करण के तत्व की एक आनन्दमयी गांठ बँधती है, बस वही सन्तान है, वास्तव में सन्तान' माता पिता के आनन्द और सुख का सागर है, उस में भी माता के प्रेम का तो एक दृढ़ बन्धन है. सन्तान ही सन्तोष और शान्ति का देनेवाला है, उसी के होने से यह १- क्योंकि बहुत से चेपी रोग होते हैं (जिनका वर्णन आगे करेंगे) अतः गर्भवती को किसी रोगी का भी स्पर्श नहीं करना चाहिये तथा रोगी और काने लुले आदि न्यूनाग को ध्यान पूर्वक देखना भी नहीं चाहिये क्यों कि इस का प्रभाव बालक पर बुरा पड़ता है | • २--मैथुन करने से गर्भस्थ बालक के निकल पड़ने का सम्भव होता है इस के सिवाय मैथुन गर्भाधान के लिये किया जाता है जब कि गर्म स्थित ही है तब मैथुन करने की क्या आवश्यकता है | ३-इन में से बहुत सी बातों की हानि तो पूर्व कह चुके है, शेष वार्ता के करने से उत्पन्न होनेवाली हानियों को बुद्धिमान् खय विचार लें अथवा प्रन्यान्तरों में देख लें ॥ ४ - इसी लिये कहा गया है कि - "आत्मा वै जायते पुत्रः" इत्यादि ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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