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________________ ११० जैनसम्प्रदायशिक्षा || इस कार्य के कर्चा यदि प्रातः काल शरीर पर उबटन लगा कर स्नान करें तथा खीर, मिश्री, सहित, दूध और भात खावें तो अति लाभदायक होता है ।. इस प्रकार से सर्वदा ऋतु के समय नियमित रात्रियों में विधिवत् स्त्रीप्रसंग करना चाहिये किन्तु निषिद्ध रात्रियों में तथा ऋतुधर्म से लेकर सोलह रात्रियों के पश्चात् की रात्रियों कीप्रसंग कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि धर्मग्रन्थों में लिखा है कि जो मनुष्य अपनी स्त्री से ऋतु के समय में नियमानुसार प्रसंग करता है वह गृहस्थ हो कर भी ब्रह्मचारी के समान है । गर्भिणी स्त्री के वर्तावका वर्णन ॥ - स्त्री के जिस दिन गर्म रहता है उस दिन शरीर में निम्नलिखित चिन्ह प्रतीत होते हैं: जैसे बहुत श्रम करने से शरीर में थकावट आ जाती है उसी प्रकार की थकावट मालूम होने लगती है, शरीर में ग्लानि होती है, तृषा अधिक लगती है, पैरों की पीढियों में दर्द होता है, प्रसवस्थान फड़कता है, रोमांच होता है ( रोंगटे खड़े होते हैं ), सुगन्धित वस्तु में भी दुर्गन्धि मालूम होती है और नेत्रोंके पलक चिमटने लगते है । गर्भाधान के एक मास के अनुमान समय होने पर शरीर में कई एक फेर फार होते हैं- स्त्री का रजोदर्शन बंद हो जाता है, परन्तु नवीन गर्भवती ( गर्भ धारण की हुई ) स्त्री को इस एक ही चिन्ह के द्वारा गर्म रहने का निश्चय नहीं कर लेना चाहिये किन्तु जिस स्त्री के एक वा दो बार सन्तति हो चुकी हो वह स्त्री नियमित समय पर होने वाले रजोदर्शन के न होने पर गर्भस्थिति का निश्चय कर सकती है । १ - स्मरण रखना चाहिये कि सन्तान का उत्तम और बलिष्ठ होना पति पत्नी के भोजन पर ही निर्भर है इस लिये स्त्री पुरुषको चाहिये कि अपने आत्मा तथा शरीर की पुष्टि के लिये वल और बुद्धिके बढानेवाले उत्तम औषध और नियमानुसार उत्तम २ भोजनों का सेवन करें, भोजन आदि के विषय में इसी अन्य के चौथे अध्याय में वर्णन किया गया है वहा देखें ॥ २- सर्व शास्त्रों का यह सिद्धान्त है कि- स्त्री गर्भसमय में अपना जैसा आचरण रखती है उन्हीं लक्षणों से युक्त सन्तान भी उस के उत्पन्न होता है इसलिये यहा पर संक्षेप से गर्भिणी स्त्री के वर्ताव का कुछ वर्णन किया जाता है - आशा है कि- खीगण इस से यथोचित लाभ प्राप्त कर सकेंगी ॥ ३- जैसा कि लिखा है कि-स्तनयोर्मुखकायै स्याद्रोमराज्युद्रमस्तथा ॥ अक्षिपक्ष्माणि चाप्यस्याः सम्मी - ल्यन्ते विशेषतः ॥ १ ॥ छर्दयेत् पथ्य भुक्त्वापि गन्धादुद्विजते शुभात् ॥ प्रसेकः सदन चैव गर्मिण्या लिङ्गमुच्यते ॥ २ ॥ अर्थात् दोनों स्तनोंका अग्रभाग काला हो जाता है, रोमाच होता है, आखों के पलक अत्यन्त चिमटने लगते हैं ॥ १ ॥ पथ्य भोजन करने पर भी छर्दि (वमन) हो जाता है शुभ गन्ध से भी भय लगता है मुख से पानी गिरता है तथा अगो में थकावट मालूम होती है ॥ २ ॥ ये लक्षण जो लिखे हैं ये गर्भरहने के पश्चात् के हैं किन्तु गर्भरहने के तत्काल तो वही चिन्ह होते हैं जो कि ऊपर लिखे है ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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