SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय ॥ १०५ है, इस प्रकार गर्भाशय के बिगड़ जानेसे गर्भस्थिति ( गर्भ रहने) में बड़ी अड़चल (दिक्कत ) आ जाती है, इसलिये स्त्री को चाहिये कि उक्त समय में इन हानिकारक वर्तावों से बिलकुल अलग रहे । इसी प्रकार बहुत देर तक खड़े रहने से, बहुत भय चिन्ता और क्रोध करने से तथा अति तीक्ष्ण ( बहुत तेज़) जुलाब लेने से भी ऋतुधर्म में बाधा पड़ती है, इसलिये स्त्री को चाहिये कि जहां ठंढी पवन का झकोरा ( झपाटा ) लगता हो वहां अथवा बारी ( खिड़की या झरोखा ) के पास न बैठे और न वहां शयन करे, इसी प्रकार भीगी हुई ज़मीन में भी सोना और बैठना नहीं चाहिये । इस के सिवाय - खान, शौच, गाना, रोना, हंसना, तेलका मर्दन, दिन में निद्रा, जुवा, आंख में किसी अंजन आदि का लगाना, लेपकरना, गाड़ी आदि वाहन ( सवारी ) पर बैठना, बहुत बोलना तथा बहुत सुनना, पति संग करना, देव का पूजन तथा दर्शन, ज़मीन खोदना (करोदना), बहिन आदि किसी रजखला स्त्री का स्पर्श, दांत घिसना, पृथिवी पर लकीरें करना, पृथिवी पर सोना, लोहे तथा तांबे के पात्र से पानी पीना, ग्राम के बाहर जाना, चन्दन लगाना, पुष्पों की माला पहरना, ताम्बूल ( पान, बीड़ा ) खाना, पाटे ( चौकी) पर बैठना, दर्पण ( कांच, शीसा ) देखना, इन सब बातों का भी स्त्री ऋतुधर्म के समय त्याग करे तथा प्रसूता स्त्री का स्पर्श, विटला हुआ, ढेढ ( चांडाल ), मुर्गा, कुत्ता, सुअर, कौमा और मुर्दा आदि का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये, इस प्रकार से वर्ताव न करने से बहुत हानि होती है, इसलिये समझदार स्त्री को चाहिये कि ऋतु धर्म के समय ऊपर लिखी हुई बातों का अवश्य स्मरण रक्खे और उन्ही के अनुसार तव करे ॥ रजोदर्शन के समय उचित वर्ताव न करने से हानि ॥ रजोदर्शन के समय उचित वर्ताव न करने से गर्भाशय में दर्द तथा विकार उत्पन्न हो जाता है जिस से गर्म रहने का सम्भव नही रहता है, कदाचित् गर्भ रहमी जाता है तो प्रसूत समय में ( बच्चा उत्पन्न होने के समय ) अति भय रहता है, इस के सिवाय प्रायः यह भी देखा जाता है कि बहुत सी स्त्रियां पीले शरीर वाली तथा मुर्दार सी दीखपड़ती हैं, उस का मुख्य कारण ऋतुधर्म में दोष होना ही है, ऐसी स्त्रियां यदि कुछ भी परिश्रम का काम करती हैं तथा सीढ़ी पर चढ़ती है तो शीघ्रही हांफने लगती है तथा कमी २ उनकी आंखों के आगे अँधेरा छा जाता है - इसका हेतु यही है कि - ऋतुधर्मके समय उचित बर्ताव न करने से उन के आन्तरिक निर्बलता उत्पन्न हो जाती है, इस लिये ऋतुधर्मके समय बहुत ही सँभलकर वर्ताव करना चाहिये ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy