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________________ द्वितीय अध्याय ॥ ५५ रहित ) ही है, उस के कुल में अंधेरा ही जानना चाहिये, जैसे चन्द्रमा के विना रात्रि में अंधेरा रहता है ॥ १३२ ॥ निशि दीपक शशि जानिये, रवि दिन दीपक जान ॥ तीन भुवन दीपक धरम, कुल दीपक सुत मान ॥ १३३ ॥ रात्रि का दीपक चन्द्रमा है, दिन का दीपक सूर्य है, तीनों लोकों का दीपक धर्म है और कुल का दीपक सपूत लड़का है ॥ १३३ ॥ तृष्णा खानि अपार है, अर्णव जिमि गम्भीर ॥ सहस यतन हूँ नहिँ भरै, सिन्धु यथा बहुनीर ॥ १३४ ॥ यह आशा ( तृष्णा ) की खान अपार है तथा समुद्र के समान अति गम्भीर है, यह ( तृष्णा की खान ) सहस्रों यत्नों से भी पैरी नहीं होती है, जैसे- समुद्र बहुत जल से भी पूर्ण नहीं होता है ॥ १३४ ॥ जिहि जीवन जीर्वै इते, मित्ररु बान्धव लोय ॥ ताको जीवन सफल जग, उदर भरै नहिँ कोय ॥ १३५ ॥ जिस के जीवन से मित्र और बांधव आदि जीते है-संसार में उसी पुरुष का जीना सफल है और यों तो अपने ही पेट को कौन नहीं भरता है ॥ १३५ ॥ भोजन वहि मुनि शेष जो, पाप हीन बुध जान ॥ पीछेउ हितकर मित्र सो, धर्म दम्भ विन मान ॥ १३६ ॥ मुनि (साधु) को देकर जो शेष बचे वही भोजन है ( और तो शरीर को भाड़ा देना मात्र है), जो पापकर्म नहीं करता है वही पण्डित है, जो पीछे भी भलाई करने वाला है वही मित्र है और कपट के बिना जो किया जावे वही धर्म है ॥ १३६ ॥ अवसर रिपु से सन्धि हो, अवसर मित्र विरोध ॥ कालछेप पण्डित करै, कारज कारण सोध ॥ १३७ ॥ समय पाकर शत्रु से मी मित्रता हो जाती है और समय पाकर मित्र से भी शत्रुता ( विरोध ) हो जाती है, इस लिये पण्डित ( बुद्धिमान् ) पुरुष कारण के विना कार्य का न होना विचार अपना कालक्षेप ( निर्वाह ) करता है ॥ १३७ ॥ १ - क्योंकि मूर्ख और भक्तिरहित पुत्र से कुल को कोई भी लाभ नहीं पहुंच सकता है ॥ २ – क्योंकि ज्यों २ घनादि मिलता जाता है त्यों २ तृष्णा और भी बढती जाती है ॥ ३ --- कार्य कारण के विषय में यह समझना चाहिये कि -पाच पदार्थ ही जगत् के कर्ता है, उन्हीं को ईश्वरवत् मानकर बुद्धिमान् पुरुष अपना निर्वाह करता है - वे पांच पदार्थ ये है — काल अर्थात् समय, वस्तुओं का स्वभाव होनहार (नियति ), जीवों का पूर्वकृत कर्म और जीवों का उद्यम, अब देखिये कि उत्पत्ति और विनाश, संसार की स्थिति और गमन आदि सब व्यवहार इन्हीं पाचों कारणों से होता है, सृष्टि अनादि है, किन्तु जो लोग कर्मरहित, निरजन, निराकार और ज्ञानानन्द पूर्ण ब्रह्म को संसार का कर्त्ता
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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