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________________ ७३९ पञ्चम- अध्याय || योगसम्बन्धिनी मेस्मेरिजम विद्या का संक्षिप्त वर्णन ॥ वर्तमान समय में इस विद्या की चर्चा भी चारों ओर अधिक फैल रही है अर्थात् अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए मनुष्य इस विद्या पर तन मन से मोहित हो रहे है, इस का यहॉ तक प्रचार बढ़ रहा है कि - पाठशालाओं ( स्कूलों ) के सब विद्यार्थी भी इस का नाम जानते है तथा इस पर यहाँ तक श्रद्धा बढ रही है कि हमारे जैन्टिलमैन भाई भी ( जो कि सब बातों को व्यर्थ बतलाया करते हैं ) इस विद्या का सच्चे भाव से स्वीकार कर रहे है, इस का कारण केवल यही है कि इस पर श्रद्धा रखने वाले जनों को बालकपन से ही इस प्रकार की शिक्षा मिली है और इस में सन्देह भी नहीं है कि - यह विद्या बहुत सच्ची और अत्यन्त लाभदायक है, परन्तु बात केवल इतनी है कि - यदि इस विद्या में सिद्धता को प्राप्त कर उसे यथोचित रीति से काम में लाया जावे तो वह बहुत लाभदायक हो सकती है । इस विद्या का विशेष वर्णन हम यहां पर ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं कर सकते हैं किन्तु केवल इस का स्वरूपमात्र पाठक जनों के ज्ञान के लिये लिखते है ' । निस्सन्देह यह विद्या बहुत प्राचीन है तथा योगाभ्यास की एक शाखा है, पूर्व समय में भारतवर्षीय सम्पूर्ण आचार्य और मुनि महात्मा जन योगाभ्यासी हुआ करते थे जिस का वृत्तान्त प्राचीन ग्रन्थों से तथा इतिहासों से विदित हो सकता है ॥ आवश्यक सूचना–संसार में यह एक साधारण नियम देखा जाता है कि - जब कभी कोई पुरुष किन्ही नूतन ( नये) विचारों को सर्व साधारण के समक्ष में प्रचरित करने का प्रारम्भ करता है तब लोग पहिले उस का उपहास किया करते है, तात्पर्य यह है कि- जब कोई पुरुष ( चाहे वह कैसा ही विद्वान् क्यों न हो ) किन्हीं नये विचारों को ( संसार के लिये लाभदायक होने पर भी ) प्रकट करता है तब एक बार लोग उस का उपहास अवश्य ही करते है तथा उस के उन विचारों को बाललीला समझते है, परन्तु विचारप्रकटकर्त्ता ( विचारों को प्रकट करने वाला) गम्भीर पुरुष जब लोगों के उपहास का कुछ भी विचार न कर अपने कर्त्तव्य में सोद्योग ( उद्योगयुक्त ) ही रहता है तब उस का परिणाम यह होता है कि उन विचारो में जो कुछ सत्यता विद्यमान होती है वह शनैः २ ( धीरे २ ) कालान्तर में ( कुछ काल के पश्चात् ) प्रचार को प्राप्त होती है। अर्थात् उन विचारों की सत्यता और असलियत को लोग समझ कर मानने लगते है, १ - यह विद्या भी स्वरोदयविद्या से विषयसाम्य से सम्बंध रखती है, अतः यहाँ पर थोडा सा इस का भी खरुप दिखलाया जाता है ॥ २- इतने ही आवश्यक विषयों के वर्णन से प्रन्थ अब तक बढ़ चुका है तथा आगे भी कुछ आवश्यक विषय का वर्णन करना अवशिष्ट है, अतः इस (मेस्मेरिजम ) विद्या के स्वरूपमात्र का वर्णन किया है ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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