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________________ ७२४ जैनसम्प्रदापशिक्षा ॥ ५-शीतल और स्थिर कार्यों को चन्द्र घर में करना चाहिये, जैसे-नये मन्दिर का बनवाना, मन्दिर की नीवँ का खुदाना, मूर्ति की प्रतिष्ठा करना, मूल नायक की मूर्ति को स्थापित करना, मन्दिर पर दण्ड तथा कलश का चढ़ाना, उपाश्रय (उपासरा ) धर्मशाला, दानशाला, विद्याशाला; पुस्तकालय पर (मकान ) होट; महल; गढ़ और कोट का बनवाना, सङ्घ की माला का पहिराना, दान देना, दीक्षा देना, यज्ञोपवीत देना, नगर में प्रवेश करना, नये मकान में प्रवेश करना, कपड़ों और आभूषणों (गहनों) का कराना अथवा मोल लेना, नये गहने और कपड़े का पहरना, अधिकार का लेना, ओषधि का बनाना, खेती करना, बाग बगीचे का लगाना, राजा आदि बड़े पुरुषों से मित्रता करना, राज्यसिंहासन पर बैठना तथा योगाभ्यास करना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि ये सब कार्य चन्द्र खर में करने चाहिये क्योंकि चन्द्र खर में किये हुए उक्त कार्य कल्याणकारी होते हैं। ६-क्रूर और चर कार्यों को सूर्य खर में करना चाहिये, जैसे-विद्या के सीखने का प्रारम्भ करना, ध्यान साधना, मन्त्र तथा देव की आराधना करना, राजा वा हाकिम को अर्जी देना, बकालत वा मुखत्यारी लेना, वैरी से मुकावला करना, सर्प के विष तथा भूत का उतारना, रोगी को दवा देना, विन्न का शान्त करना, कष्टी स्त्री का उपाय करना, हाथी, घोड़ा तथा सवारी ( बग्धी रथ आदि) का लेना, भोजन करना, सान करना, स्त्री को ऋतुदान देना, नई वही को लिखना, व्यापार करना, राजा का शत्रु से लड़ाई करने को जाना, जहाज वा अमि बोट को दर्याव में चलाना, वैरी के मकान में पैर रखना, नदी आदि के जल में तैरना तथा किसी को रुपये उधार देना वा लेना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि ये सब कार्य सूर्य खर में करने चाहिये, क्योंकि सूर्य खर में किये हुए उक्त कार्य सफल होते हैं । ७-जिस समय चलता २ एक खर रुक कर दूसरा खर बदलने को होता है अर्थात् जब चन्द्र खर बदल कर सूर्य खर होने को होता है अथवा सूर्य खर बदल कर चन्द्र खर होने को होता है उस समय पाँच सात मिनट तक दोनों खर चलने लगते हैं, उसी को सुखमना खर कहते हैं, इस (सुखमना) खर में कोई काम नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस खर में किसी काम के करने से वह निष्फल होता है तथा उस से क्लेश भी उत्पन्न होता है। १-इस में भी जल तत्त्व और पृथिवी तत्त्व का होना अति श्रेष्ठ होता है । २-हाट अर्थात् दूकान ॥ ३-इस मे भी पृथिवी तत्त्व और जल तत्त्व का होना अति श्रेष्ठ होता है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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