SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय ॥ - सुत बोही पितुभक्त जो, जो पालै पितु सोय ॥ मित्र वही विश्वास जिहि, नारी सो सुख होय ॥ ६७ ॥ पुत्र वही है जो माता पिता का भक्त हो, पिता वही है जो पालन पोषण करे, मित्र वही है जिस पर विश्वास हो और स्त्री वही है जिस से सदा सुख प्राप्त हो ॥ ६७ ॥ पीछे काज नसावही, मुख पर मीठी बान ॥ परिहरु ऐसे मित्र को, मुख पय विष घट जान ॥ ६८ ॥ पीछे निन्दा करे और काम को बिगाड़ दे तथा सामने मीठी २ बातें बनावे, ऐसे मित्र को अन्दर विष भरे हुए तथा मुख पर दूध से भरे हुए घड़े के समान छोड़ देना चाहिये ॥ ६८ ॥ हँ मित्र विश्वास कर, मित्रहुँ को न विसास ॥ कबहुँ कुपित है मित्र हैं, गुह्य करै परकास ॥ ६९ ॥ खोटे मित्र का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये, किन्तु मित्र का भी विश्वास नहीं करना चाहिये, क्योंकि संभव है कि - मित्र भी कभी क्रोध में आकर गुप्त बात को प्रकट कर दे ॥ ६९ ॥ मन में सोचे काम को, मत कर वचन प्रकास ॥ मन्त्र सरिस रक्षा करै, काम भये पर भास ॥ ७० ॥ ३९ मन से विचारे हुए काम को वचन के द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिये, किन्तु उस की मन्त्र के समान रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि कार्य होने पर तो वह आप ही सब को प्रकट हो जायगा ॥ ७० ॥ मूरख नर से दूर तुम, सदा रहो मतिमान | विन देखे कंटक सरिस, वेधै हृदय कुवान ॥ ७१ ॥ साक्षात् पशु के समान मूर्ख जन से सदा बच कर रहना अच्छा है, क्योंकि वह बिना देखे कांटे के समान कुवचन रूपी कांटे से हृदय को वेध देता है ॥ ७१ ॥ कण्टक अरु धूरत पुरुष, प्रतीकार है जान ॥ जूती से मुख तोड़नो, दूसर त्यागन जान ॥ ७२ ॥ धूर्त मनुष्य और कांटे के केवल दो ही उपाय ( इलाज ) है - या तो जूते से उस के सुख को तोड़ना अथवा उस से दूर हो कर चलना ॥ ७२ ॥ १ –— क्योंकि कार्य के सिद्ध होने से पूर्व यदि वह सब को विदित हो जाता है तो उम में किसी न किसी प्रकार का प्रायः बिन पड़ जाता है, दूसरा यह भी कारण है कि कार्य की सिद्धि से पूर्वं यदि वह सब को अक्ट हो जाने कि अमुक पुरुष अमुक कार्य को करना चाहता है और देवयोग से उस कार्य की सिद्धिन हो तो उपहास का स्थान होगा ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy