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द्वितीय अध्याय ॥ की रक्षा करनी चाहिये अर्थात् कुल के लिये तमाम ग्राम को नहीं छोड़ना चाहिये किन्तु ग्राम की रक्षा के लिये कुल को छोड़ देना चाहिये, ग्राम का त्याग कर देश की रक्षा क. रनी चाहिये अर्थात् देश की रक्षा के लिये ग्राम को छोड़ देना चाहिये और अपनी रक्षा के लिये तमाम पृथिवी को छोड़ देना चाहिये ॥ ५५ ॥
नहीं मान जिस देश में, वृत्ति न बान्धव होय ॥
नहि विद्या प्रापति तहाँ, वसिय न सजन कोय ॥५६॥ जिस देश में न तो मान हो, न जीविका हो, न भाई बन्धु हों और न विद्या की ही प्राप्ति हो, उस देश में सज्जनों को कभी नहीं रहना चाहिये ॥ ५६ ॥
पण्डित राजा अरु नदी, वैद्यराज धनवान ॥
पांच नहीं जिस देश में, वसिये नाहिँ सुजान ॥ ५७॥ सव विद्याओं का जाननेवाला पण्डित, राजा, नदी (कुआ आदि जल का स्थान ), रोगों को मिटानेवाला उत्तम वैद्य और धनवान् , ये पांच जिस देश में न हो उस में वुद्धिमान् पुरुष को नहीं रहना चाहिये । ५७ ॥
भय लज्जा अरु लोकगति, चतुराई दातार ॥ जिसमें नहिं ये पांच गुण, संग न कीजै यार ॥५८॥ हे मित्र ! जिस मनुष्य में मय, लज्जा, लौकिक व्यवहार अर्थात् चालचलन, चतुराई और दानशीलता, ये पांच गुण न हों, उस की संगति नहीं करनी चाहिये ।। ५४ ॥
काम भेज चाकर परख, बन्धु दुःख में काम। मित्र परख आपद पड़े, विभव छीन लख वाम ॥ ५९॥ कामकाज करने के लिये भेजने पर नौकर चाकरों की परीक्षा हो जाती है, अपने पर दुःख पड़ने पर भाइयों की परीक्षा हो जाती है, आपत्ति आने पर मित्र की परीक्षा हो जाती है और पास में धन न रहने पर स्त्री की परीक्षा हो जाती है । ५९ ॥
आतुरता दुख हू पड़े, शत्रु सङ्कटौ पाय॥
राजद्वार मसान में, साथ रहै सो भाय ॥६०॥ आतुरता (चित्त में घबड़ाहट) होने पर, दुःख आने पर, शत्रु से कष्ट पाने पर, राजदर का कार्य आने पर तथा श्मशान (मौतसमय) में जो साथ रहता है, उसी को अपना माई समझना चाहिये ॥ ६॥
सींग नखन के पशु नदी, शस्त्र हाथ जिहि होय ॥ नारी जन अरु राजकुल, मत विश्वास हु कोय ॥ ६१॥ सींग और नखवाले पशु, नदी, हाथ में शस्त्र लिये हुए पुरुष, स्त्री तथा राजकुल, इन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिये ॥ ६१॥