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________________ पंचम अध्याय || ६४३ चील्हा जी के कडूबा और धरण नामक दो पुत्र हुए, वील्हा जी ने भी अपने पिता ( तेजपाल ) के समान अनेक धर्मकृत्य किये । वील्हा जी की मृत्यु के पश्चात् उन के पाट पर उन का बड़ा पुत्र कडूवा बैठा, इस का नाम तो अलवत्ता कडूवा था परन्तु वास्तव में यह परिणाम में अमृत के समान मीठा निकला । किसी समय का प्रसंग है कि यह मेवाड़देशस्थ चित्तौड़गढ को देखने के लिये गया, उस का आगमन सुन कर चित्तौड़ के राना जी ने उस का बहुत सम्मान किया, थोड़े दिनों के बाद माँडवगढ का बादशाह किसी कारण से फौज लेकर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ आया, इस बात को जान कर सब लोग अत्यन्त व्याकुल होने लगे, उस समय राना जी ने कवा जी से कहा कि - "पहिले भी तुम्हारे पुरुषाओं ने हमारे पुरुषाओं के अनेक बड़े २ काम सुधारे है इस लिये अपने पूर्वजों का अनुकरण कर आप भी इस समय हमारे इस काम को सुधारो" यह सुन कर कडूबा जी ने बादशाह के पास ना कर अपनी बुद्धिमत्ता से उसे समझा कर परस्पर में मेल करा दिया और बादशाह की सेना को वापिस लौटा दिया, इस बात से नगरवासी जन बहुत प्रसन्न हुए और राना जी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर बहुत से घोड़े आदि ईनाम में देकर कडूवा जी को अपना मन्त्रीश्वर ( प्रधान मन्त्री ) बना दिया, उक्त पद को पाकर कडूवा जी ने अपने सद्वर्ताव से वहाँ उत्तम यश प्राप्त किया, कुछ दिनों के बाद कडूबा जी राना जी की आज्ञा लेकर अणहिल पचन में गये, वहां भी गुजरात के राजा ने इन का बड़ा सम्मान किया तथा इन के गुणों से तुष्ट होकर पाटन इन्हें सौप दिया, कडूवा जी ने अपने कर्त्तव्य को विचार सात क्षेत्रों में बहुत सा द्रव्य लगाया, गुजरात देश में जीवहिंसा को बन्द करवा दिया तथा विक्रम संवत् १४३२ (एक हजार चार सौ बत्तीस ) के फागुन वदि छठ के दिन खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनराज सूरि जी महाराज का नन्दी ( पाट) महोत्सव सवा लाख रुपये लगा कर किया, इस के सिवाय इन्हों ने शेत्रुञ्जय का संघ भी निकाला और मार्ग में एक मोहर, एक थाल और पाँच सेर का एक मगदिया लड्डू, इन का घर दीठ लावण अपने साधर्मी भाइयों को बाँटा, ऐसा करने से गुजरात भर में उन की अत्यन्त कीर्ति फैल गई, सात क्षेत्रों में भी बहुत सा द्रव्य लगाया, तात्पर्य यह है कि इन्हों ने यथाशक्ति जिनशासन का अच्छा उद्योत किया, अन्त में अनशन आराधन कर ये स्वर्गवास को प्राप्त हुए । कडूवा जी से चौथी पीढ़ी में जेसल जी हुए, उन के बच्छराज, देवराज और हंस १ - श्री शत्रुञ्जय गिरनार का संघ निकाला तथा मार्ग में एक मोहर, एक बाल और पॉच सेर का एक मगदिया लड्डू, इन की लावण प्रतिगृह में सावर्मी भाइयों को बॉडी तथा सात क्षेत्रों में भी बहुत सा वच्य लगाया ||
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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