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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥
कर उस में एक सेर जबाखार का चूर्ण डालना चाहिये, इस वृत के सेवन से राजयक्ष्मा, खांसी और श्वास, ये रोग नष्ट हो जाते हैं ।
९ - वासा के जड़ की छाल १२॥ सेर तथा जल ६४ सेर, इन को औटावे, जब १६ सेर जल शेष रहे तब इस में १२|| सेर मिश्री मिला कर पाक करे, जब गाढ़ा हो जावे तब उस में त्रिकुटा, दालचीनी, पत्रज, इलायची, कायफल, मोथा, कुष्ठ (कूठ ), जीरा, पीपरामूल, कवीला, चव्य, वंशलोचन, कुटकी, गजपीपल, तालीसपत्र और धनियां, ये सब दो २ तोले मिलावे, सब के एक जीव हो जाने पर उतार ले तथा शीतल होने पर
जांघ को फैला कर और दाहिनी जांघ को सकोड़ कर चिकनी गुदा में पिचकारी की नली को रक्खे, उस नली में पति के मुख को सूत से बाँध कर बायें हाथ में ले कर दाहिने हाथ से मध्यम वेग से धीर चित्त होकर दवावे, जिस समय वस्ति की जावे उस समय रोगी जमाई खांसी तथा छींकना आदि न करे; पिचकारी के दावने का काल तीस मात्रा पर्यन्त है, जब स्नेह सव शरीर में पहुँच जावे तब सौ बाकू पर्यन्त चित्त लेटा रहे (वाक् और मात्रा का परिमाण अपने घोंटू पर हाथ को फेर कर चुटकी बजाने जितना माना गया है, अथवा आँख बन्द कर फिर खोलना जितना है, अथवा गुरु अक्षर के उच्चारण काल के समान है ) फिर सब देह को फैला देना चाहिये कि जिस से लेह का असर सब शरीर में फैल जाने, फिर रोगी के पैर के तलवों को तीन चार ठोंकना चाहिये, फिर इस की शय्या को उठा कर कूले और कमर को तीन चार ठोंकना चाहिये, फिर पैरों की तरफ से शय्या को तीन २ वार ऊँची करना चाहिये, इस प्रकार सव विधि के होने के पश्चात् रोगी को यथेष्ट सोना चाहिये, जिस रोगी के पिचकारी का तेल बिना किसी उपद्रव के अधोवायु और मल के साथ गुदा से निकले उस के वस्ति का ठीक लगना जानना चाहिये, फिर पहिले का भोजन पच जाने पर और तेल के निकल थाने पर दीप्तानि वाले रोगी को सायंकाल में हलका अन भोजन के लिये देना चाहिये, दूसरे दिन स्नेह के विकार के दूर करने के लिये गर्म जल पिलाना चाहिये, अथवा धनिया और सोंठ का काढ़ा पिलाना चाहिये इस प्रकार से छः सात आठ अथवा नौ अनुवासन बस्तियां देनी चाहिये, ( इन के बाद अन्त में निरूहण वस्ति देनी चाहिये) । वस्ति के गुण- पहिली वस्ति से मूत्राशय और पेडू चिकने होते हैं, दूसरी बस्ति से मस्तक का पवन शान्त होता है, तीसरी वस्ति से वल और वर्ण की वृद्धि होती है, चौथी और पांचवीं वस्ति से रस और रुषिर निग्ध होते हैं, छठी वस्ति से मांस स्निग्ध होता है, सातवीं वस्ति से मेद स्निग्ध होता है, आठवीं और नवीं वस्ति सेक्रम से मांस और मजा निग्ध होते हैं, इस प्रकार अठारह वस्तियों तक लगाने से शुक तक के चावमात्र विकार दूर होते हैं, जो पुरुष अठारह दिन तक अठारह वस्तियों का सेवन कर लेवे वह हाथी के समान बलवान्, घोड़े के समान वेगवान् और देवों के समान कान्ति बाला हो जाता है, रूक्ष तथा अधिक वायु वाले मनुष्य को तो प्रति दिन ही भक्ति का सेवन करना चाहिये तथा अन्य मनुष्यों को जठराम में बाधा न पहुँचे इस लिये तीसरे २ दिन वस्ति का सेवन करना चाहिये, रूक्ष शरीर वाले मनुष्यों को अल्प मात्रा भी अनुवासन बस्ति दी जावे तो बहुत दिनों तक भी कुछ हर्ज नहीं है किन्तु निग्ध मनुष्यों को थोडी मात्रा की निरूहण बखि दी जावे तो वह उन के अनुकूल होती है, अथवा जिस मनुष्य के वन्ति