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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ७-अडूसे का रस एक सेर, सफेद चीनी आघसेर, पीपल आठ तोले और घी आठ तोले, इन सब को मन्दामि से पका कर अवलेह (चटनी) बना लेना चाहिये, इस के शीतल हो जाने पर ३२ तोले शहद मिलाना चाहिये, इस का सेवन करने से राजयक्ष्मा, खांसी, श्वास, पसवाड़े का शूल, हृदय का शूल, रक्तपित्त और ज्वर, ये सब रोग शीघ्र ही मिट जाते है। ८-बकरी का घी चार सेर, बकरी की मेंगनियों का रस चार सेर, बकरी का मूत्र चार सेर, बकरी का दूध चार सेर तथा बकरी का दही चार सेर, इन सब को एकत्र पका चाहिये, एक वर्ष से लेकर छ वर्ष तक के वालक के लिये छः अगुल के, छः वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक के लिये आठ अगुल के तथा बारह वर्ष से अधिक अवस्था वाले के लिये बारह अगुल के लम्वे वखि के नेत्र बनाने चाहियें, अगुल की नली में मूग के दाने के समान, आठ अगुल की नली में मटर के समान तथा वारह अगुल की नली में बेर की गुठली के समान छिद्र रक्खे, नली बिकनी तथा गाय की पूँज के समान (जड़ में मोटी और आगे क्रम २ से पतली) होनी चाहिये, नली मूल मे रोगी के अगूठे के समान मोटी होनी चाहिये और कनिष्ठिका के समान स्थूल होनी चाहिये तथा गोल मुख की होनी बाहिये, नली के तीन भागों को छोड कर चतुर्थ भाग रूप मूल में गाय के कान के समान दो कर्णिकाये बनानी चाहिये.तया उन्हीं कर्णिकाओं में चर्म की कोथली (थैली) को दो बन्धनों से खुव मजबूत बांध देना चाहिये, वह वस्ति लाल या कषैले रंग से रंगी हुई, चिकनी और दृढ होनी चाहिये, यदि घाव में पिचकारी मारनी हो तो उस की नली आठ अगुल की मूग के समान छिद्र वाली और गीध के पाख की नली के समान मोटी होनी चाहिये । वस्ती के गुण-वस्ति का उत्तम प्रकार से सेवन करने से शरीर की पुष्टि, वर्ण की उत्तमता, यल की वृद्धि, आरोग्यता और घायु की वृद्धि होती है। ऋतु के अनुसार वस्ति-शीत काल और बसन्त ऋतु में दिन मै लेह वस्ति देना चाहिये तथा प्रीष्म वर्षा और शरद ऋतु में स्नेह वस्ति रात्रि में देना चाहिये । वस्ति विधि-रोगी को बहुत चिकना न हो ऐसा भोजन करा के यह वस्ति देनी चाहिये किन्तु बहुत चिकना भोजन कराके वस्ति नहीं देनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दो प्रकार से (भोजन मे और वखि मे) नेह का उपयोग होने से मद और मूर्छा रोग उत्पन्न होते हैं तथा अत्यन्त रूक्ष पदार्थ खिला कर पस्ति के देने से वल और वर्ण का नाश होता है, अतः अल्पस्निग्ध पदार्थों को खिला कर पति करनी चाहिये । वस्ति की मात्रा-यदि पति हीन मात्रा से दी जावे तो यथोचित कार्य को नहीं करती है, यदि अधिक मात्रा से दी जावे तो अफरा, कृमि और भतीसार को उत्पन्न करती है इस लिये वस्ति न्यूनाधिक मात्रा से नहीं देनी चाहिये, अनुवासन वस्ति में नेह की छ. पल की मात्रा उत्तम, तीन पल की मध्यम और डेढ पल की मात्रा अधम मानी गई है, लेह में जो सोंफ और सेंधे नमक का चूर्ण डाला जावे उस की मात्रा छः मासे की उत्तम, चार मासे की मध्यम और दो मासे की हीन है। वस्ति का समय–विरेचन देने के बाद ७ दिन के पीछे जव देह में वल ना जावे तव अनुवासन वस्ति देनी चाहिये । वस्ति देने की रीति-रोगी के खूब तेल की मालिश कराके धीरे २ गर्म जल से बफारा दिला कर तथा भोजन कराके कुछ इधर उधर घुमा कर तथा मल मूत्र और अघोवायु का साग करा के नेह वस्ति देनी चाहिये, इस की रीति यह है कि रोगी को वायें करवट सुला के वाई
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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