SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६०. जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ २ - चिरायता, गिलोय, दाख, आँवला और कचूर, इन का काढ़ा कर के तथा उस में त्रिवर्षीय (तीन वर्ष का पुराना ) गुड़ डाल कर पीना चाहिये । ३ - अथवा - गिलोय, पित्तपापड़ा, मोथा, चिरायता और सोंठ, इन का काम करके पीना चाहिये, यह पञ्चभद्र काथ वातपित्तज्वर में अतिलाभदायक ( फायदेमन्द ) माना गया है ॥ वातकफज्वर का वर्णन ॥ लक्षण - जंभाई (उवासी ) का आना और अरुचि, ये दो लक्षण इस ज्वर के मुख्य है, इन के सिवाय -सन्धियों में फूटनी ( पीड़ा का होना ), मस्तक का भारी होना, निद्रा, गीले कपड़े से देह को ढाकने के समान मालूम होना, देह का भारीपन, खांसी, नाक से पानी का गिरना, पसीने का आना, शरीर में दाह का होना तथा ज्वर का नध्यम वेगे, ये दूसरे भी लक्षण इस ज्वर में होते हैं । चिकित्सा - १ - इस ज्वर में भी पूर्व लिखे अनुसार लंघन का करना पथ्य है । २ - पसर कंटाली, सोंठ, गिलोय और एरण्ड की जड़, इन का काढ़ा पीना चाहिये, यह लघुक्षुद्रादि काथ है | ३-किरमाले ( अमलतास ) की गिरी, पीपलामूल, मोथा, कुटकी और नौं हरदे ( छोटी अर्थात् काली हरड़े ), इन का काढ़ा पीना चाहिये, यह आरग्ववादि काथ हैं । ४-~अथवा - केवल (अकेली ) छोटी पीपल की उकाली पीनी चाहिये ॥ पित्तकफज्वर का वर्णन || लक्षण -नेत्रों में दाह और अरुचि, ये दो लक्षण इस ज्वर के मुख्य हैं, इन के सिवाय - तन्द्रा, मूर्छा, मुख का कफ से लिप्त होना ( लिसा रहना ), पित्त के ज़ोर से सुख १- सोरठा - देह दाह गुरु गात, स्तैमित जृम्भा अरुचि हो ॥ मध्य हु वेग दिखात, स्वेद कास पीनस सही ॥ १ ॥ नींद न आवै कोय, सन्धि पीड़ मस्तक है । वैद्य विचारै जोय, ये लक्षण कफवात के ॥ २ ॥ २- वायु शीघ्रगतिवाला है तथा कफ मन्दगतिवाला है, इस लिये दोनों के संयोग से वातकफज्वर मध्यमवेगवाला होता है ॥ ३- यह आरग्बधादि नाथ- दीपन ( अनि को प्रदीप्त करनेवाला), पाचन ( दोषों को पकानेवाला) तथा संशोधन (मल और दोषों को पका कर बाहर निकालनेवाला ) मी है, इन के ये गुण होने से ही दोषों का पाचन आदि होकर ज्वर से शीघ्र ही मुक्ति (छुटकारा ) हो जाती है ॥ ४ - सोरठा-मुख कहता परतीत, तन्त्रा मूर्छा अरुचि हो ॥ बार बार में गीत, बार बार में तप्त हो ॥ १ ॥ लिप्त विरस मुख जान, नेत्र जलन अरु कात हो ॥ लक्षण होत सुजान, पित्तकफज्वर के यहीं ॥ २ ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy