SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय ॥ • ४५९ ४-इस ज्वर में अडूसे का पत्ता, भूरीगणी तथा गिलोय का काढा शहद डाल कर पीने से फायदा करता है ॥ . द्विदोषज (दो र दोषोंवाले) ज्वरों का वर्णन ॥ पहिले कह चुके है कि-दो २ दोषवाले ज्वरों के तीन भेद है अर्थात् वातपित्तज्वर, वातकफज्वर और पित्तकफज्वर इन दो २ दोषवाले ज्वरों में दो २ दोषों के लक्षण मिले हुए होते हैं, जिन की पहिचान सूक्ष्म दृष्टि वाले तथा वैद्यक विद्या में कुशल अनुभवी वैद्य ही अच्छे प्रकार से कर सकते हैं, इन दोर दोषवाले ज्वरों को वैधक शास्त्र में द्वन्द्वज तथा मिश्रज्वर कहा गया है, अब क्रम से इन का विषय संक्षेप से दिखलाया जाता है । वातपित्तज्वर का वर्णन ॥ लक्षणे-जुभाई का बहुत आना और नेत्रों का जलना, ये दो लक्षण इस ज्वर के मुख्य है, इन के सिवाय-प्यास, मूर्छा, अम, दाह, निद्रा का नाश, मस्तक में पीड़ा, वमन, अरुचि, रोमाञ्च (रोंगटों का खड़ा होना), कण्ठ और मुख का सूखना, सन्धियों में पीड़ा और अन्धकार दर्शन (अंधेरे का दीखना), ये दूसरे भी लक्षण इस ज्वर में होते है। चिकित्सा-१-इस ज्वर में भी पूर्व लिखे अनुसार लवन का करना पथ्य है। १-भूरीगणी को रेगनी तथा फण्टकारी (क्टेरी) भी कहते हैं, प्रयोग में इस की जड़ ली जाती है, परन्तु जब न मिलने पर पञ्चाङ्ग (पाचों अंग अर्थात् जह, पत्ते, फूल, फल और शाखा) भी काम में आता है, इस की साधारण मात्रा एक मासे की है। २-अर्थात् दोनों ही दोपो के लक्षण पाये जाते है, जैसे-पातपित्तज्वर मे-वातज्वर के तथा पित्तज्वर के (दोनों के) मिश्रित लक्षण होते हैं, इसी प्रकार वातकफज्वर तथा पित्तकफज्वर के विषय में भी जान लेना चाहिये। ३-क्योंकि मिश्रित लक्षणों में दोपो के अशाशी भाव की कल्पना (कौन सा दोष कितना बढा हुआ है तथा कौन सा दोप कितना कम है, इस बात का निश्चय करना) बहुत कठिन है, वह पूर्ण विद्वान् तथा अनुभवी वैद्य के सिवाय और किसी (साधारण वैद्य आदि) से नहीं हो सकती है। ४-इन दो २ दोपवाले ज्वरो के वर्णन मे कारण का वर्णन नहीं किया जावेगा, क्योंकि प्रत्येक दोपवाले ज्वर के विषय में जो कारण कह चुके है उसी को मिश्रित कर दो २ दोषवाले ज्वरों में समझ लेना चाहिये, जैसे-वानज्वर का जो कारण कह चुके है तथा पित्तज्वर का जो कारण कह चुके है इन्हीं दोनों को मिलाकर वातपित्तज्वर का कारण जान लेना चाहिये, इसी प्रकार पातकफवर तथा पित्तकफवर के विषय में भी समझ लेना चाहिये ॥ ५-चौपाई-तृपा मूरछा श्रम अरु दाहा ॥ नींदनाश शिर पीड़ा ताहा ॥१॥ अरुचि वमन जम्मा रोमाञ्चा ॥ कण्ठ तथा मुखशोष हुसाँचा ॥२॥ सन्धि शूल पुनि तम ह रहई ॥ वातपित्तज्वर लक्षण अहई ॥३॥ ६-पूर्व लिखे अनुसार अर्थात् जब तक दोपों का पाचन न होवे तथा भूख न लगे तब तक लघन करना चाहिये अर्थात् नहीं खाना चाहिये ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy