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________________ ३.२ जैनसम्प्रदायशिक्षा || मागने वाले ) से भी क्या प्रीति है (यह भी व्यर्थ रूपही है, क्योंकि इस से भी कुछ प्र योजन की सिद्धि नहीं हो सकती है किन्तु लघुता ही होती है ) ॥ २९ ॥ नर चित कों दुख देत हैं, कुच नारी के दोय ॥ होत दुखी वह पड़न तें, इस विधि सब कों जोय ॥ ३० ॥ देखो ! स्त्रियों के दोनों कुच पुरुषों के चित्त को दुःख देते हैं, आखिरकार वे आप भी दुःख पाकर नीचे को गिरते है, इसी प्रकार सब को जानना चाहिये अर्थात् जो कोई मनुष्य किसी को दुःख देगा अन्त में वह आप भी सुख कमी नहीं पावेगा ॥ ३० ॥ सिंघरूप राजा हुवै, मन्त्री बाघ समान ॥ चाकर गीध समान तब, प्रजा होय क्षय मान ॥ ३१ ॥ राजा सिंह के समान हो अर्थात् प्रजा के सब धन माल को लूटने का ही खयाल रक्खे, मन्त्री बाघके समान हो अर्थात् रिश्वत खाकर झूठे अभियोग को सच्चा कर देवे अथवा बादी और प्रतिवादी (मुद्दई और मुद्दायला ) दोनों से घूष खा जावे और चाकर लोग गीध के समान हों अर्थात् प्रजा को ठगने वाले हों तो उस राजा की प्रजा अवश्य नाश को प्राप्त हो जाती है ॥ ३१ ॥ उपज्यो धन अन्याय करि, दशहिँ बरस ठहराय ॥ सबहि सोलवें वर्ष लौं, मूल सहित विनसाय ॥ ३२ ॥ अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दश वर्ष तक रहता है और सोलहवें वर्ष तक वह सब घन मूलसहित नष्ट हो जाता है ॥ ३२ ॥ विद्या में व्है कुशल नर, पावै कला सुजान ॥ द्रव्य सुभाषित को हुँ पुनि, संग्रह करि पहिचान ॥ ३३ ॥ विद्या में कुशल होकर सुजान पुरुष अनेक कलाओं को पा सकता है अर्थात् विद्या सीखा हुआ मनुष्य यदि सब प्रकार का गुण सीखना चाहे तो उस को वह गुण शीघ्र ही प्राप्त हो सकता है, फिर - विद्या पढ़े हुये मनुष्य को चतुराई प्राप्त करनी हो तो -सुभाषित ग्रन्थ (जो कि अनेक शास्त्रो में से निकाल कर बुद्धिमान श्रेष्ठ कवियों ने बनाये हैं, जैसेचाणक्यनीति, भर्तृहरिशतक और सुभाषितरत्नभाण्डागार आदि) सीखने चाहियें, क्योंकि जो मनुष्य सुभाषितमय द्रव्य का संग्रह नहीं करता है वह सभा के बीच में अपनी बाणी की विशेषता (खूबी ) को कभी नहीं दिखला सकता है ॥ ३३ ॥ शूर वीर पण्डित पुरुष, रूपवती जो नार ॥ ये तीन हुँ जहँ जात हैं, आदर पावें सार ॥ ३४ ॥ १ - छोटा नाहर ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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