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जैनसम्प्रदायशिक्षा॥ ७-भारी खुराक से-अपची, दस्त, मरोड़ा और बुखार आदि रोग उत्पन्न होते हैं। ८-मात्रा से अधिक खुराक से दस्त, -अजीर्ण, मरोड़ा और ज्वर आदि रोग उत्पन
होते हैं। ९-मात्रा से न्यून खुराक से-क्षय, निर्वलता, चेहरे और शरीर का फीकापन और बुखार
आदि रोग उत्पन्न होते हैं। इस के सिवाय मिट्टी से मिली हुई खुराक से-पाण्डु रोग होता है, बहुत मसालेदार खुराक से यकृत् ( कलेजा अर्थात् लीवर ) विगड़ता है और बहुत उपवास के करने से शूल और वायुजन्य रोग आदि उत्पन्न होकर शरीर को निर्बल कर देते हैं। को अच्छे प्रकार से जानते भी है तो भी इस को नहीं छोड़ते हैं, संसार की अनेक बदनामियों को शिर पर उठाते हैं तो भी इस से मुख नहीं मोड़ते हैं, इस कुरीति की जो कुछ निकृष्टता है उस को दूसरे तो क्या वतला। किन्तु वह नृत्य तथा उस का सर्व सामान ही बतलाता है, देखो ! जव मृत्य होता है तथा वेश्या गाती है तब यह उपदेश मिलता है कि- ' सवैया-शुभ काजको छाड कुकाज रचें, धन जात है व्यर्थ सदा विन को।
एक रांड बुलाय नचावत हैं, नहिं मावत लाज जरा विनको ॥ मिरदंग भने धूक है धूक है, पुरताल पुछे किन को किन को।
तब उत्तर रांड बतावत है, एक है इन को इन को इन को ॥१॥ एक समय का प्रसंग है कि किसी भाग्यवान् वैश्य के यकद एक ब्राह्मण ने भागवत की कथा वाची तब उस वैश्य ने कथा पर केवल तीस रुपये बढ़ाये परन्तु मो भाग्यवान् के यहां जव पुत्र का विवाह हुआ तो उस ने वेश्या को बुलाई और उसे सात सौ रुपये दिये उस समय उस ब्राह्मण ने कहा है किदोहा-उलटी गति गोपाल की, घट गई विश्वा वीस ॥
रामजनी को सात सौ, अभयराम को तीस ॥१॥ . प्रियवरो! अव अन्त मे आप से यही कहना है कि यदि भाप के विचार में भी ऊपर कहीं हुई सब बातें ठीक हों तो शीघ्र ही भारतसन्तान के उद्धार के लिये वेश्या के नाच कराने की प्रथा को अवश्य त्याग दीजिये, अन्यथा (इस का त्याग न करने से) सम्मति देने के द्वारा आप भी दोषी अवश्य होंगे, क्योंकि-किसी विषय का त्याग न करना सम्मति रूप ही है।
भांड-वेश्या के नृत्य के समान इस देश में भांडों के कौतुक कराने की भी प्रथा पड़ रही है, इस का भी कुछ वर्णन करना चाहते हैं, मुनिये-ज्योंही वेश्याओं के नाच से निश्चिन्त हुए सोही भाडों का लश्कर वसांत के मेंडकों की भांति भौति २ की बोली बोलता हुआ निकल पड़ा, अब लगी तालियां धजने, कोई किसी की घुटी हुई खोपड़ी में चपत जमाता है, कोई गधे की भांति चिलाता है, एक कहता है कि मिया ओ ! दूसरा कहता हे फुस, तात्पर्य यह है कि वे लोग अनेक प्रकार के कोलाहल मचाते हैं तथा ऐसी २ नकलें बनाने और सुनाते हैं कि लालाजी सेठजी और वावू जी आदि की प्रतिष्ठा में पानी पढ़ जाता है, ऐसे २ शब्दों का उच्चारण करते हैं कि जिन के लिखने में भी लेखनीको तो लचा माती