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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ૨૫૬ ४-सन्तान का विगड़ना-बहुत से रोग ऐसे हैं जो कि पूर्व क्रम से सन्तानों के हो जाते है अर्थात् माता पिता के रोग बच्चों को हो जाते हैं, इस प्रकार के रोगों में मुख्य २ ये रोग हैं-क्षय, दमा, क्षिप्तचित्तता (दीवानापन ), मृगी, गोला, हरस (मस्सा), सुजाख, गर्मी, आंख और कान का रोग तथा कुष्ठ इत्यादि, पूर्वक्रम से सन्तान में होनेवाले बहुत से रोग अनेक समयों में वृद्धि को प्राप्त होकर जब सर्व कुटुम्ब का संहार कर डालते हैं उस समय लोग कहते हैं कि देखो ! इस कुटुम्ब पर परमेश्वर का कोप हो गया है परन्तु वास्तव में तो परमेश्वर न तो किसी पर कोप करता है और न किसी पर प्रसन्न होता है किन्तु उन २ जीवों के कर्म के योग से वैसा ही संयोग आकर उपस्थित हो जाता है क्योंकि क्षय और क्षिप्तचित्तता रोग की दशा में रहा हुआ जो गर्म है वह भी क्षय रोगी तथा क्षिप्तचित्त (पागल) होता है, यह वैद्यकशास्त्र का नियम है, इसलिये चतुर पुरुषों को इस प्रकार के रोगों की दशा में विवाह करने तथा सन्तान के उत्पन्न करने से दूर रहना चाहिये। किसी २ समय ऐसा भी होता है कि-सन्तान के होनेवाले रोग एक पीढ़ी को छोड़ कर पोते के हो जाते है। सन्तान के होनेवाले रोगों से युक्त बालक यद्यपि अनेक समयों में प्रायः पहिले तनदुरुस्ख दीखते है परन्तु उन की उस तनदुरुस्ती को देखकर यह नहीं समझना चाहिये कि वे नीरोग हैं, क्योंकि ऐसे बालकों का शरीर रोग के लायक अथवा रोग के लायक होने की दशा में ही होता है, ज्योंही रोग को उत्तेजन देनेवाला कोई कारण बन जाता है त्यों ही उन के शरीर में शीघ्र ही रोग दिखलाई देने लगता है, यद्यपि सन्तान के होनेवाले रोगों का ज्ञान होने से तथा वचपन में ही योग्य सम्भाल रखने से भी सम्भव है कि उस रोग की विलकुल जड़ न जावे तो भी मनुण्य का उचित उद्यम उस को कई दों में कम कर सकता तथा रोक भी सकता है । - का नाम शास्त्रानुसार हो, जैसे-यशोदा, सुभद्रा, विमला, सावित्री आदि । ११-जिस की चाल हंस वा ह. थिनी के तुल्य हो । १२-जो अपने चार गोत्रों मे की न हो। १३-मनस्मृति आदि धर्म शास्त्रों में कन्या के नाम के विषय में कहा है कि-"नक्षवृक्षनदी मानी, नान्यपर्वतनामिकाम् ॥ न पश्यहिप्रेष्यनानी, न च भीषणनामिकाम् ॥१॥" अर्थात् कन्या नक्षत्र नामवाली न हो, जैसे-रोहिणी, रेवती इत्यादि, वृक्ष नामवाली न हो, जैसे-चम्पा, तुलसी आदि, नदी नामवाली न हो, जैसे-नागा, यमुना, सरखती भादि अन्य (मीच) मामवाली न हो, जैसे-चाण्डाली आदि, पर्वत नामवाली न हो, जैसे-विन्ध्याचला, हिमा. लया मादि, पक्षी नामवाली म हो, जैसे-कोकिला, मैना, इंसा आदि, सर्प नामवाली न हो, जैसे-सर्पिणी, नागी, व्याली मादि, प्रेष्य (मूल) नामवाली न हो, जैसे-दासी किरी आदि, तथा भीषण (भयानक) नामवाली न हो, जैसे-भीमा, भयंकरी, चण्डिका मादि, क्योकि ये सब नाम निषिद्ध है अतः कन्याओं के ऐसे नाम ही नहीं रखने चाहियें)।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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