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चतुर्थ अध्याय ॥
३४९ -१-संस्कृत भाषा में बेटीका नाम दुहिता रक्खा है और उस का अर्थ ऐसा होता है कि-जिस के दूर ब्याहे जाने से सब का हित होता है।
२-प्राचीन इतिहासों से यह बात अच्छे प्रकार से प्रकट है और इतिहासवेत्ता इस बात को भलीभाँति से जानते भी है कि इस आर्यावर्त देश में पूर्व समय में पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवर मण्डप की रचना की जाती थी अर्थात् स्वयंवर की रीति से विवाह किया जाता था और उस के. वास्तविक तत्त्वपर विचार कर देखने से यह वात मालूम होती है कि वास्तव में उक्त रीति अति उत्तम थी, क्योंकि उस में कन्या अपने गुण कर्म और स्वभावादि के अनुकूल अपने योग्य वर का वरण (स्वीकार ) कर लेती थी कि जिस से आजन्म वे (स्त्री पुरुष) अपनी जीवनयात्रा को सानन्द व्यतीत करते थे, क्योंकि सब ही जानते और मानते है कि स्त्री पुरुष का समान भावादि ही गृहस्थाश्रम के सुख का वास्तविक (असली) कारण है।
३-ऊपर कही हुई रीति के अतिरिक्त उस से उतर कर (घट कर) दूसरी - रीति यह थी कि वर और कन्या के माता पिता आदि गुरुजन वर और कन्या की अवस्था, रूप, विधा आदि गुण, सद्वर्ताव और स्वभावादि बातों का विचार कर अर्थात् दोनों में, उक्त बातों की समानता को देखकर उन का विवाह कर देते थे, इस से भी वही अमीष्ट सिद्ध होता था जैसा कि ऊपर लिख चुके है अर्थात् दोनों (स्त्री पुरुष ) गृहस्थाश्रम के सुख को प्राप्त कर अपने जीवन को विताते थे । ___४-ऊपर कही हुई दोनों रीतियाँ जब नष्टप्राय हो गई अर्थात् स्वयंवर की रीति बन्द होगेई और माता पिता आदि गुरुजनों ने भी वर और कन्या के रूप, अवस्था, गुण, कर्म और स्वभावादि का मिलान करना छोड़ दिया, तब परिणाम में होनेवाली हानि
१-जैसा कि निरुक ग्रन्थ में 'दुहिता' शब्द का व्याख्यान है कि-"दूरे हिता दुहिता" इस का भाषार्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है, विचार कर देखा जावे तो एक ही नगर में बसनेवाली कन्या से विवाह होने की अपेक्षा दूर देश में बसनेवाली कन्या से विवाह होना सर्वोत्तम भी प्रतीत होता है, परन्तु खेद का विषय है कि-बीकानेर आदि कई एक नगरों में अपने ही नगर में विवाह करने की रीति प्रचलित हो गई है तथा उक नगरों में यह भी प्रथा है कि श्री दिनभर तो अपने पितृगृह (पीहर) में रहती है और रात को अपने श्वसुर गृह (सासरे) में रहती है और यह प्रथा खासकर वहा के निवासी उत्तम वर्गों में अधिक है, परन्तु यह महानिकृष्ट प्रथा है, क्योंकि इस से गृहस्थाश्रम को बहुत हानि पहुँचती है, इस बुरी प्रथा से उक्त नगरों को जो २ हानियों पहुंच चुकी है और पहुंच रही हैं उन का विशेष वर्णन लेखके वढने के भय से यहा नहीं करना चाहते हैं, बुद्धिमान् पुरुष खय ही उन हानियों को सोचलेंगे।
२-कन्नौज के महाराज जयचन्द्रजी राठौर ने अपनी पुत्री के विवाह के लिये खयवरमण्डप की रखना करवाई थी अर्थात् खयवर की रीति से अपनी पुत्री का विवाह किया था, बस उस के बाद से प्रायः उक्त रीती से विवाह नहीं हुमा अर्थात् खयवर की रीती उठ गई, यह बात इतिहासों से प्रकट है।
३-द्रव्य के लोम आदि अनेक कारणों से ॥