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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ है, इसीप्रकार बहुत से दोषरूप कारण शरीर को ऐसी दशा में ले जाते हैं कि वह ( रीर) रोगोत्पत्ति के योग्य बन जाता है, पीछे उत्पन्न हुए नवीन कारण शीघ्र ही रोग को उत्पन्न कर देते है, यद्यपि शरीर को रोगोत्पत्ति के योग्य बनानेवाले कारणं बहुत से हैं परन्तु अन्य के विस्तार के भय से उन सब का वर्णन नहीं करना चाहते हैं किन्तु उन में से कुछ मुख्य २ कारणों का वर्णन करते हैं-१-माता पिता की निर्बलता । २-निज कुटुम्ब में विवाह । ३-बालंकपन में (कची अवस्था में) विवाह । ४-सन्तान का विगड़ना। ५-अवस्था । ६-जाति । ७-जीविका वा वृत्ति (व्यापार)। ८-प्रकृति (तासीर)। बस शरीर को रोगोत्पत्ति के योग्य बनानेवाले ये ही आठ मुख्य कारण हैं, अब इन का संक्षेप से वर्णन किया जाता है: १-माता पिता की निर्बलता-यदि गर्भ रहने के समय दोनों में से (मातापिता में से एक का शरीर निर्बल होगा तो बालक भी अवश्य निर्बल ही उत्पन्न होगा, इसी प्रकार यदि पिता की अपेक्षा माता अधिक अवस्थावाली होगी अथवा माता की अपेक्षा पिता बहुत ही अधिक अवस्थावाला होगा (स्त्री की अपेक्षा पुरुष की अवस्था ज्योढी तथा दूनीतक होगी तबतक तो जोड़ा ही गिना जावेगा परन्तु इस से अधिक अवस्थावाला यदि पुरुष होगा) तो वह जोड़ा नही किन्तु कुजोड़ा गिना जायगा इस कुजोड़े से भी उत्पन्न हुआ बालक निर्बल होता है और निर्बलता जो है वही बहुत से रोगों का , मूल कारण है। २-निज कुटुम्ब में विवाह यह भी निर्बलता का एक मुख्य हेतु है, इस लिये वैद्यक शास्त्र आदि में इस का निषेध किया है, न केवल वैद्यक शास्त्र आदि में ही इस का निषेध किया है किन्तु इस के निषेध के लौकिक कारण भी बहुत से है परन्तु उन का वर्णन ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से यहांपर नहीं करना चाहते हैं । हो उन में से दो तीन कारणों को तो अवश्य ही दिखलाना चाहते है-देखिये: १-देखो। इसी लिये युगादि भगवान् श्रीऋषभदेव ने प्रजा को बलवती करने के लिये युगला धर्म को दूर किया था अर्थात पूर्व समय में युगल जोडों से मैथुन होता था इसलिये उस समय में न तो प्रजा की वृद्धि ही थी और कोई पुरुषार्थ का काम ही कर सकते थे, किन्तु वे तो केवल पूर्व व पुण्य का फल कल्पवृक्षों से भोग उस समय कल्पवृक्ष का नाश होता हुमा देख कर प्रभुने पुरुषार्थ वढाने के लिये दूसरों २ की सन्तति से विवाह करने की आजादी, तब सब लोग एक के साथ जन्मे हुए जोडे का दूसरे के साथ जन्मे हुए जोड़े से विवाह करने लगे, वही मनु में भी ऐसी ही आज्ञा है परन्तु मृगुऋषि की बनाई हुई छोटी मनु में ऐसा लिखा है कि जो माता के सपिण्ड में न हो और पिता के गोत्र में न हो ऐसी कन्या के साथ उत्तम जातिवाले पुरुष को विवाह करना चाहिये इत्यादि, परन्तु वास्तव में तो यही मनु का जो नियम है वह अईनीति के अनुकूल होने से माननीय है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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