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________________ i } चतुर्थ अध्याय ॥ २८९ इस ऋतु में अपथ्य - सिरका, खारी तीखे खट्टे और रूक्ष पदार्थों का सेवन, कसरत, धूप में फिरना और अग्नि के पास बैठना आदि कार्य रस को सुखाकर गर्मी को बढाते है इस लिये इस ऋतु में इन का सेवन नहीं करना चाहिये, इसी प्रकार गर्म मसाला, चटनियां, लाल मिर्च और तेल आदि पदार्थ सदा ही बहुत खाने से हानि करते है परन्तु इस ऋतु में तो ये ( सेवन करने से ) अकथनीय हानि करते है इस लिये इस ऋतु में इन सब का अवश्य ही त्याग करना चाहिये ॥ वर्षा और प्रावृट् ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ चार महीने बरसात के होते हैं, मारवाड़ तथा पूर्व के देशों में आर्द्रा नक्षत्र से तथा दक्षिण के देशों में मृगशिर नक्षत्र से वर्षा की हवा का प्रारम्भ होता है, पूर्व बीते हुए ग्रीष्म में वायु का संचय हो चुका है, रस के सूख जाने से शक्ति घट चुकी है तथा जठरानि मन्द हो गई है, इस दशा में जब जलकणों के सहित बरसाती हवा चलती है तथा मैंह बरसता है तब पुराने जल में नया जल मिलता है, ठंढे पानी के बरसने से शरीर की गर्मी भाफ रूप होकर पित्त को विगाड़ती है, जमीन की भाफ और को बढ़ा कर वायु तथा कफ को दबाने का प्रयत्न करता है तथा बरसात का मैला पानी कफ को बढा कर वायु और पित्त को दबाता है, इस प्रकार से इस ऋतु में तीनों दोषों का आपस में विरोध रहता है, इस लिये इस ऋतु में तीनों दोषों की शान्ति के लिये युक्तिपूर्वक आहार विहार करना चाहिये, इस का संक्षेप से वर्णन करते है : खटासवाला पाक पित्त १ - जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाले तथा सब दोषों को बराबर रखनेवाले खान पान का उपयोग करना चाहिये अर्थात् सब रस खाने चाहियें । २- यदि हो सके तो ऋतु के लगते ही हलका सा जुलाब ले लेना चाहिये । ३ - खुराक में वर्षभर का पुराना अन्न वर्त्तना चाहिये । 8 - मूंग और अरहर की दाल का ओसावण बना कर उस में छाछ डाल कर पीना चाहिये, यह इस ऋतु में फायदेमन्द है । ५- दही में सञ्चल, सैंधा या सादा नमक डाल कर खाना बहुत अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार से खाया हुआ दही इस ऋतु में वायु को शान्त करता है, अग्नि को प्रदीत करता है तथा इस प्रकार से खाया हुआ दही हेमन्त ऋतु में भी पथ्य है । १ - बहुत से लोग मूर्खता के कारण गर्मी की ऋतु में दही खाना अच्छा समझते हैं, सो यह ठीक नहीं है, यद्यपि उक्त ऋतु मे वह खाते समय तो ठंढा मालूम होता है परन्तु पचने के समय पित्त वढ़ा कर कर उलटी अधिक गर्मी करता है, हा यदि इस ऋतु में दही खाया भी जावे तो मिश्री डाल कर युक्तिपूर्वक खाने से पित्त को शान्त करता है, किन्तु युक्ति के बिना तो खाया हुआ दही सब ही ऋतुओं में हानि करता है ॥ ३७
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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