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________________ २८६ जैनसम्प्रदायशिक्षा || ४ - वसन्तऋतु की हवा बहुत फायदेमन्द मानी गई हैं इसी लिये शास्त्रकारों का कथन है कि "वसन्ते भ्रमणं पथ्यम्” अर्थात् वसन्तऋतु में भ्रमण करना पथ्य है, इस लिये इस ऋतु में प्रातःकाल तथा सायंकाल को वायु के सेवन के लिये दो चार मील तक अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से वायु का सेवन भी हो जाता है तथा जाने आने के परिश्रम के द्वारा कसरत भी हो जाती है, देखो । किसी बुद्धिमान् का कथन है कि- "सौ दवा और एक हवा" यह बात बहुत ही ठीक है इसलिये आरोग्यता रखने की इच्छावालों को उचित है कि अवश्यमेव प्रातःकाल सदैव दो चार मील तक फिरा करें ॥ ग्रीष्म ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ - ग्रीष्म ऋतु में शरीर का कफ सूखने लगता है तथा उस कफ की खाली जगह में हवा भरने लगती है, इस ऋतु में सूर्य का ताप जैसा ज़मीन पर स्थित रस को खीच लेता है उसी प्रकार मनुष्यों के शरीर के भीतर के कफरूप प्रवाही ( बहनेवाले ) पदार्थों का शोषण करता है इस लिये सावधानता के साथ गरीब और अमीर सब ही को अपनी २ शक्ति के अनुसार इस का उपाय अवश्य करना चाहिये, इस ऋतु में जितने गर्म पदार्थ हैं वे सब अपथ्य है यदि उन का उपयोग किया जावे तो शरीर को बड़ी हानि पहुँचती है, इस लिये इस ऋतु में जिन पदार्थों के सेवन से रस न घटने पावे अर्थात् जितना रस सूखे उतना ही फिर उत्पन्न हो जावे और वायु को जगह न मिलसके ऐसे पदार्थों का सेवन करना चाहिये, इस ऋतु मधुर रसवाले पदार्थों के सेवन की आवश्यकता है और वे खाभाविक नियम से इस ऋतु में प्रायः मिलते भी है जैसे- पके आम, फालसे, सन्तरे, नारंगी, इमली, नेचू जामुन और गुलाबजामुन आदि, इस लिये खामा, विक नियम से आवश्यकतानुसार उत्पन्न हुए इन पदार्थों का सेवन इस ऋतु में अवश्य करना चाहिये । मीठे, ठंढे, हलके और रसवाले पदार्थ इस ऋतु में अधिक खाने चाहियें जिन से क्षीण होनेवाले रस की कमी पूरी हो जावे । गेहूं, चावल, मिश्री, दूध, शकर, जल झरा हुआ तथा मिश्री मिलाया हुआ दही और श्रीखंड आदि पदार्थ खाने चाहियें, ठंढा पानी पीना चाहिये, गुलाब तथा केवड़े के जल का उपयोग करना चाहिये, गुलाब, केवड़ा, खस और मोतिये का अतर सूंघना चाहिये । प्रातः काल में सफेद और हलका सूती वस्त्र, दश से पांच बजे तक सूती जीन वा गजी का कोई मोटा वस्त्र तथा पांच बजे के पश्चात् महीन वस्त्र पहरना चाहिये, बर्फ १ - श्रीखण्ड के गुण इसी अध्याय के पाचवें प्रकरण मे कह चुके हैं, इस के बनाने की विधि भावप्रकाश आदि वैद्यक ग्रन्थों मे अथवा पाकशास्त्र मे देख लेनी चाहिये ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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