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________________ २८५ चतुर्थ अध्याय ॥ इस लिये इस ऋतु के प्राचीन उत्सवों का प्रचार कर उन में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है, क्योंकि इन उत्सवों से शरीर नीरोग रहता है तथा चित्त को प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। पदार्थ बना कर अवश्य ही इस मौसम में खाते हैं, यह वास्तव में तो अविद्या देवी का प्रसाद है परन्तु शीतला देवी के नाम का बहाना है, हे कुलवती गृहलक्ष्मियो । जरा विचार तो करो कि-दया धर्म से विरुद्ध और शरीर को हानि पहुंचानेवाले अर्थात् इस भव और परमध को विगाडनेवाले इस प्रकार के खान पान से क्या लाभ है । जिस शीतला देवी को पूजते २ तुम्हारी पीढियां तक गुज़र गई परन्तु आज तक शीतला देवी ने तुम पर कृपा नहीं की अर्थात् आज तक तुम्हारे बच्चे इसी शीतला देवी के प्रभाव से काने अन्धे, कुरूप, लूले और लॅगडे हो रहे हैं और हजारों मर रहे है, फिर ऐसी देवी को पूजने से तुम्हें क्या लाभ हुआ। इस लिये इस की पूजा को छोडकर उन प्रत्यक्ष अग्रेज देवों को पूजो कि जिन्हो ने इस देवी को माता के दूध का विकार समझ कर उस को खोद कर (टीके की चाल को प्रचलित कर) निकाल डाला और बालकों को महा संकट से बचाया है, देखो वे लोग ऐसे २ उपकारों के करने से ही माज साहिब के नाम से विख्यात है, देखो। अन्धपरम्परा परन चलकर तत्त्व का विचार करना बुद्धिमानों का काम है, कितने अफसोस की बात है कि कोई २ चिया तीन २ दिन तक का ठठा (वासा) अन्न खाती हैं, भला कहिये इस से हानि के सिवाय और क्या मतलब निकलता है, स्मरण रक्खो कि ठढा खाना सदा ही अनेक हानियों को करता है अर्थात् इस से बुद्धि कम हो जाती है तथा शरीर में अनेक रोग हो जाते है, जब हम बीकानेर की तरफ देखते है तो यहा भी बड़ी ही अन्धपरम्परा दृष्टिगत होती है कि यहा के लोग तो सवेरे की सिरावणी में प्राय. बालक से लेकर वृद्धपर्यन्त दही और वानरी की अथवा गेहूँ की वासी रोटी खाते हैं जिस का फल भी हम प्रत्यक्ष ही नेत्रों से देख रहे है कि यहा के लोग उत्साह बुद्धि और सद्विचार आदि गुणों से हीन दीख पडते हैं, अव अन्त में हमें इस पवित्र देश की कुलवतियों से यही कहना है कि हे कुलवती त्रियो । शीतला रोग की तो समस्त हानियो को उपकारी डाक्टरों ने बिलकुल ही कम कर दिया है अब तुम इस कुत्सित प्रथा को क्यों तिलाञ्जलि नहीं देती हो ? देखो। ऐसा प्रतीत होता है कि-प्राचीन समय में इस ऋतु मे कफ की और दुष्कर्मों की निवृत्ति के प्रयोजन से किसी महापुरुष ने सप्तमी वा भष्टमी को शीलवत पालने और चूल्हे को न सुलगाने के लिये अर्थात् उपवास करने के लिये कहा होगा परन्तु पीछे से उस कथन के असली तात्पर्य को न समझ कर मिथ्यात्व वश किसी धूर्त ने यह शीतला का ढंग शुरू कर दिया और वह क्रम २ से पनघट के घाघरे के समान वढता २ इस मारवाड़ मे तथा अन्य देशों में मी सर्वत्र फैल गया ( पनघट के घाघरे का वृत्तान्त इस प्रकार है कि किसी समय दिल्ली में पनघट पर किसी स्त्री का घाघरा खुल गया, उसे देखकर लोगों ने कहा कि “घाघरा पड़ गया रे, घाघरा पड गया" उन लोगों का कथन दूर खड़े हुए लोगों को ऐसा सुनाई दिया कि-'आगरा जल गया रे, आगरा जल गया, इस के बाद यह वात कर्णपरम्परा के द्वारा तमाम दिल्ली में फैल गई और बादशाह तक के कानों तक पहुंच गई कि 'भागरा जल गया रे, आगरा जल गया, परन्तु जब बादशाहने इस बात की तहकी कात की तो मालूम हुआ कि आगरा नहीं जल गया किन्तु पनघट की स्त्री का घाघरा खुल गया है) है परममित्रो। देखो । संसार का तो ऐसा ढग है इसलिये सुज्ञ पुरुषो को उक्त हानिकारक बातो पर अवश्य ध्यान देकर उन का सुधार करना चाहिये ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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