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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ कुपथ्य पदार्थ ॥ २६५ दाह करनेवाले, जलानेवाले, गलानेवाले, सड़ाने के स्वभाववाले और ज़हर का गुण करनेवाले पदार्थ को कुपथ्य कहते है, यद्यपि इन पांचों प्रकार के पदार्थों में से कोई पदार्थ बुद्धिपूर्वक उपयोग में लाने से सम्भव है कि कुछ फायदा भी करे तथापि ये सब पदार्थ सामान्यतया शरीर को हानि पहुँचानेवाले ही है, क्योंकि ऐसी चीजें जब कभी किसी एक रोग को मिटाती भी है तो दूसरे रोग को पैदा कर देती हैं, जैसे देखो । खार अर्थात् नमक के अधिक खाने से वह पेट की वायु गोला और गांठ को गला देता है परन्तु शरीर के धातु को बिगाड़ कर पौरुष में बाधा पहुँचाता है । इन पाचों प्रकार के पदार्थों में से दाहकारक पदार्थ पित्त को बिगाड़ कर अनेक प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते हैं, इमली आदि अति खट्टे पदार्थ शरीर को गला कर सन्धियों को ढीला कर पौरुष को कम कर देते है । इस प्रकार के पदार्थों से यद्यपि एक दम हानि नही देखी जाती है परन्तु बहुत दिनोंतक निरन्तर सेवन करने से ये पदार्थ प्रकृतिको इस प्रकार विकृत कर देते है कि यह शरीर अनेक रोगों का गृह बन जाता है इस लिये पहले पथ्य पदार्थों में जो २ पदार्थ लिख चुके है उन्हीं का सदा सेवन करना चाहिये तथा जो पदार्थ पथ्यापथ्य में लिखे है उनका ऋतु और प्रकृति के अनुसार कम वर्षाव रखना चाहिये और जो कुपथ्य पदार्थ कहे हैं उन का उपयोग तो बहुत ही आवश्यकता होने पर रोगविशेष में औषध के समान करना चाहिये अर्थात् प्रतिदिन की खुराक में उन ( कुपथ्य ) पदार्थों का कभी उपयोग नहीं करना चाहिये, इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जो पथ्यापथ्य पदार्थ हैं वे भी उन पुरुषों को कभी हानि नहीं पहुँचाते है जिन का प्रतिदिन का अभ्यास जन्म से ही उन पदार्थों के खाने का पड़ जाता है, जैसे-बाजरी, गुड़, उड़द, छाछ और दही आदि पदार्थ, क्योंकि ये चीजें ऋतु और प्रकृति के अनुसार जैसे पथ्य है वैसे कुपथ्य भी है परन्तु मारवाड़ देश में इन चारों चीज़ों का उपयोग प्रायः वहां के लोग सदा करते है और उन को कुछ नुकसान नही होता है, इसी प्रकार पञ्जाबवाले उड़द का उपयोग सदा करते है परन्तु उन को कुछ नुकसान नहीं करता है, इस का कारण सिर्फ अभ्यास ही है, इसी प्रकार हानिकारक पदार्थ मी अल्प परिमाण में खाये जाने से कम हानि करते है तथा नहीं भी करते है, दूष यद्यपि पथ्य है तो भी किसी २ के अनुकूल नही आता है अर्थात् दस्त लग जाते है इस से यही सिद्ध होता है कि- खान पान के पदार्थ अपनी प्रकृति, शरीर का बन्धान, नित्य का अभ्यास, ऋतु और रोग की परीक्षा ૩૪
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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