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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १६१ से उड़ कर ऊँचे चढ़ते हुए और हवामें फैलते हुए संख्यावन्ध नाना जन्तु अपने को अवश्य दीख पड़ते, परन्तु अपने नेत्र वैसे तीक्ष्ण नहीं है, इस लिये वे अपने को नहीं दीखते हैं, हां ऐसी हवा में होकर जाते समय अपनी नाक के पास जो वास आती हुई मालूम पड़ती है वह और कुछ नहीं है किन्तु सड़े हुए प्राणी आदि में से उड़ते हुए वे सूक्ष्म जन्तु अर्थात् छोटे २ जीव ही है, यह बात आधुनिक ( वर्त्तमान) डाक्टर लोग कहते हैं तथा जैन पन्नवणा सूत्र में भी यही लिखा है कि- दश स्थान ऐसे है जिन से दुर्गन्ध युक्त हवा निकलती है, जैसे-मुर्दे, वीर्य, खून, पित्त, खखार, थूक, मोहरी तथां मल मूत्र आदि स्थानों में सम्मूर्छिम अंगुल के असंख्यातवें भाग के समान छोटे २ जीव होते हैं, जिन को चर्म नेत्रवाले नहीं देख सकते है किन्तु सर्वज्ञ ने केवल ज्ञान के द्वारा जिन को देखा था, ऐसे असंख्य जीव अन्तर्मुहूर्त के पीछे उत्पन्न होते है, ये ही जन्तु श्वास के मार्ग से अपने शरीर में प्रवेश करते हैं, इसी प्रकार घर में शाक तरकारी का छिलका तथा कूड़ा कर्कट आदि आंगन में अथवा घर के पास फेंक २ कर जमा कर दिया जाता है तो वह भी हवा को बिगाड़ता है, चमार, कसाई, रंगरेज़ तथा इसी प्रकार के दूसरे धन्धेवाले अन्य लोग भी अपने २ घन्धे से हवा को बिगाड़ते हैं, ऐसे स्थानों में हो कर निकलते समय नाक और मुँह आदि को बन्द कर के निकलना चाहिये ॥ ४- मुर्दों के दाबने और जलाने से भी हवा बिगड़ती है, इस लिये मुर्दों के दाबने और जलाने का स्थान वस्ती से दूर रहना चाहिये, इस के सिवाय पृथ्वी स्वयं भी वाफ अथवा सूक्ष्म परमाणुओं को बाहर निकालती है तथा उसमें थोड़ी बहुत हवा भी प्रविष्ट होती है और यह हवा ऊपर की हवा के साथ मिल कर उसको विगाड़ देती है, जब पृथ्वी दरार वाली होती है तब उस में से सड़े हुए पदार्थों के परमाणु विशेष निकलकर अत्यन्त हानि पहुँचाते हैं । सड़ता हुआ या भीगा हुआ भाजी पाला बहुधा ज्वर के उपद्रव का मुख्य कारण होती है ॥ ५- घर की मलीनता से भी खराब हवा उत्पन्न होती है और मलीनता के स्थान कुँए के १ - इस बात को प्राचीन जनों ने तो शास्त्र सम्मत होने से माना ही है किन्तु अर्वाचीन विद्वान् डाक्ट रोंने भी इस को प्रत्यक्ष प्रमाण रूपमें स्वीकार किया है ॥ २- देखो ! विपाक सूत्र में - गौतम गणधर ने मृगा लोड़े की दुर्गन्धि के विषय में नाक और मुॅह को मुखत्रिका (जो हाथ मे थी) से मृगारानी के कहने से बॅंका था, यह लिखा है ॥ ३- इस बात का हम ने मारवाड देग मे प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि जब बहुत दृष्टि होकर ककड़ी मतीरे और टीडसे आदि की वेले आदि सडती है तब जाट आदि ग्रामीणों को शीतज्वर हो जाता है तथा जब ये चीजें शहर में आकर पडी २ सड़ती हैं तब हवा में ज़हर फैल कर शहरवालो को शीतज्वर आदि रोग हवा के बिगडने से हो जाते हैं । २१
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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