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________________ 1 १४८ जैनसम्प्रदायशिक्षा || इस विषय में यद्यपि अन्य आचार्यों में से बहुतों का मत यह है कि - उद्यम की अपेक्षा कर्मगति अर्थात् दैव प्रधान है - परन्तु इस के विरुद्ध चिकित्साशास्त्र और उस (चिकित्साशास्त्र ) के निर्माता आचार्यों की तो यही सम्मति है कि मनुष्यका उद्यम ही प्रधान है, यदि उद्यम को प्रधान न मानकर कर्मगति को प्रधान माना जावे तो चिकित्साशास्त्र अना - वश्यक हो जायगा, अतएव शरीर संरक्षण विषयमें चिकित्साशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार उद्यम को प्रधान मान कर शरीर संरक्षण के नियमों पर ध्यान देना मनुष्यमात्र का परम कर्त्तव्य और प्रधान पुरुषार्थ है, अब समझने की केवल यह बात है कि यह उद्यम भी पूर्व लिखे अनुसार दो ही भागों में विभक्त है - अर्थात् रोग को समीप में आने न देना और आये हुए को हटा देना, इन दोनों में से पूर्व भाग का वर्णन इस अध्याय में कुछ विस्तार - पूर्वक तथा उत्तर भाग का वर्णन संक्षेप से किया जायगा || स्वास्थ्य वा आरोग्यता ॥ यद्यपि शरीर का नीरोग होना वा रहना पूर्व कृत कर्मों पर भी निर्भर है - अर्थात् जिस ने पूर्व जन्म में जीवदया का परिपालन किया है तथा भूखे प्यासे और दीन हीन प्राणीका जिसने सब प्रकार से पोषण किया है-वह प्राणी नीरोग शरीर वाला, दीर्घायु तथा उद्यम बल और बुद्धि आदि सर्व साधनोंसे युक्त होता है - तथापि चिकित्सा शास्त्र की सम्मति के अनुसार मनुष्य को केवल कर्मगति पर ही नहीं रहना चाहिये - किन्तु पूर्ण उद्योग कर शरीर की नीरोगता प्राप्त करनी चाहिये, क्योंकि - जो पूर्ण उद्योग कर नीरोगता को प्राप्त नहीं करता है संसार में उसका जीवन व्यर्थ ही है, देखो । जगत्में जो सात सुख माने गये हैं उनमें से मुख्य और सब से पहिला सुख नीरोगता ही है, क्योंकि यही (नीरोगता का सुख ) अन्य शेष ६ सुखों का मूल कारण है, न केवल इतना ही किन्तु आरोग्यता ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भी मूल कारण है, जैसा कि - शास्त्रकारोंने कहा मी है कि – “धर्मार्थ काम मोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्" इसी प्रकार लोकोक्ति भी है कि "काया राखे धर्म" अर्थात् धर्म तब ही रह सकता वा किया जा सकता है जब कि शरीर नीरोग हो, क्योंकि - शरीर की आरोग्यता के विना मनुष्य को सांसारिक सुखों के स्वप्न में भी दर्शन नही होते है, फिर भला उस को पारमार्थिक सुख क्योंकर प्राप्त हो १ - " आरोग्यता" यह शब्द यद्यपि संस्कृत भाषा के नियम से अशुद्ध है अर्थात् 'अरोगता, वा 'आरोग्य, शब्द ठीक है, परन्तु वर्तमान में इस 'आरोग्यता, शब्द का अधिक प्रचार हो रहा है, इसी लिये हमने भी इसी का प्रयोग किया है ॥ · २~पहिलो सुक्ख निरोगी काया । दूजो सुख घर मे हो माया ॥ तीजो सुख सुधान वासा । चौथो सुख राजमें पासा ॥ पॉचवों सुख कुलवन्ती नारी । छो सुख सुत आज्ञाकारी ॥ सातमो सुख धर्म मे मती । शास्त्र सुकृत गुरु पण्डित यती ॥ १ ॥ "
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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