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________________ तृतीय अध्याय ॥ १४५ के पीने के समय बालक अत्यन्त रोता है तथापि उस के रोने पर निर्दय माता को कुछ भी दया नहीं आती है, इस गुटिका के देनेकी रीति प्रायः एक दूसरी को देख कर स्त्रियों में चल जाती है, यह गुटिका भी एक प्रकार के व्यसन के समान बालक को दुबैला, निर्वल और पीला कर देती है तथा इस से बालक के हाथ पैर रस्सीके समान पतले और पेट मटकी के समान बड़ा हो जाता है तथा इस गुटिका को देकर वालक को बलात्कार सुलाना तो न सुलाने के ही समान है, इसलिये माता का यह कार्य तो बालक के साथ शत्रुता रखने के तुल्य होता है, बालक को सुलाने का सच्चा उपाय तो यही है कि सोने से प्रथम बालक से पूरी शारीरिक कसरत कराना चाहिये, ऐसा करने से बालक को खयमेव उत्तम निद्रा आ जावेगी, इसलिये निद्रा के लिये वालगुटिका के देने की रीति को बिलकुल ही वन्द कर देना चाहिये । २०-आँख-जब बालक सो कर उठे तब कुछ देर के पीछे उस की आंखों को ठंढे जल से घो देना चाहिये, आंखों के मैल आदि को खूब धोकर आंखों को साफ कर देना चाहिये, ठंडे पानी से हमेशा धोने से आंखों का तेज बढता है, ठंढक रहती है तथा आंख की गर्मी कम हो जाती है, इत्यादि बहुत से लाम आंखों को ठंडे पानी से धोने से होते हैं, परन्तु आंखों को धोये विना वैसी ही रहने देने से नुकसान होता है, आंखों में हमेशा काजल अथवा ज्योति को बढ़ाने वाला अन्य कोई अञ्जन आंजते (लगाते) रहना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से आंखें दुखनी नहीं आती हैं और तेज भी बढ़ता है। आंखें दुखनी आना एक प्रकार का चेपी रोग है, इस लिये यदि किसी की आंखें १-क्योंकि स्त्रियों में मूर्खता तो होती ही है एक दूसरी को देख कर व्यवहार करने लगती हैं । २-क्योंकि इस में अफीम आदि कई विषैले पदार्थ डाले जाते हैं। ३-क्योंकि नशे के जोर से जो निद्रा आती है वह स्वाभाविक निद्रा का फल नहीं देसकती है। ४-क्योकि शारीरिक थकावट के बाद निद्रा खूब भाया करती है। ५-सोकर उठने के बाद शीघ्र ही आंखों को धो देने से सर्दी गर्मी होकर आखें दुखनी आजाती हैं। -चेपी रोग उसे कहते हैं जोकि रोगी के स्पर्श करनेवाले तथा रोगी के पास में रहनेवाले पुरुष के भी वायु के द्वारा उड़ कर लगजाता है, यह (चेपी) रोग बड़ा भयकर होता है, इस लिये माता पिता को चाहिये कि-चेपी रोग से अपनी तथा अपने बालकों की सदा रक्षा करते रहें, यह भी जान लेना चाहिये कि केवल आंखों का दुखनी आना ही चेपी रोग नहीं है किन्तु चेपीरोग बहुत से हैं, जैसे ओरी (शीतला का भेद),अछबड़ा (आकड़ा काकड़ा), शीतला (चेचक), गालपचोरिया (गालमें होने वाला रोगविशेप), खुलखुलिया, गलसुआ (गले में होने वाला एक रोग) दाद, आखो का दुखना, टाइफस ज्वर (ज्वर विशेप), कोलेरा (विचिका वा हैजा), मोतीझरा, पानी भरा (ये दोनों राजपूताने में प्रायः होते हैं) इत्यादि, इन रोगों में से जब कोई रोग कहीं प्रचलित हो तो वहां वालक को लेकर नहीं रहना चाहिये किन्तु जब वह रोग मिट जावे तव वहां बालक को ले जाना चाहिये तथा यदि कोई पुरुष इन रोगो में से किसी रोग से प्रस्त हो तो उसके विलकुल माराम हो जाने के पीछे वालक को उस के पास जाने देना चाहिये, तात्पर्य यही है कि बेपी रोगों से अपनी और अपने पालकों की बड़ी सावधानी के साथ रक्षा करनी चाहिये ।। १९
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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