SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हाँ, शिलालेखोंमें एक शिलालेख इससे भी पहिले विक्रमसंवत्के उल्लेखको लिये हुए है और वह चाहमान चण्ड महासेनका शिलालेख है, जो धौलपुरसे मिला है और जिसमें उसके लिखे जानेका संवत् ८६८ दिया है; जैसा कि उसके निम्न अंशसे प्रकट है:-- .... . “वसु नव अष्टौ वर्षा गतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य ।" . यह अंश विक्रमसंवत्को विक्रमकी मृत्युका संवत् बतलानेमें कोई बाधक नहीं है और न 'पाइप्रलच्छी नाममाला' का 'विक्कम कालस्स गए अउणत्ती एणवी] सुत्तरे सहस्सम्मि' अंश ही इसमे कोई बाधक प्रतीत होता है बल्कि ये दोनों ही अंश एक प्रकारसे साधक जान पड़ते है; क्योंकि इनमे जिस विक्रमकालके बीतने की बात कही गई है और उसके बादके बीते हुए वोकी गणना की गई है वह विक्रमका अस्तित्वकाल--उसकी मृत्युपर्यन्तका समय-ही जान पड़ता है । उसीका मृत्यु के बाद बीतना प्रारम्भ हुअा है । इसके सिवाय, दर्शनमारमें एक यह भी उल्लेख मिलता है कि उमकी गाथाएँ पूर्वाचार्योंकी रची हुई है और उन्हें एकत्र संचय करके ही यह ग्रंथ बनाया गया है । यथाः पुव्यायरियकयाई गाहाई संचिऊरण एयत्थ । सिरिदेवसणगणिणा धाराप संवसंतगा ॥४६॥ रइओ दसणसारो हारो भव्याण णंवसार णवए। मिरिपामणाहगेहे सुविसुद्धं माहमुदसमीए ॥५०॥ इससे उक्त गाथानोंके और भी अधिक प्राचीन होनेकी संभावना है और उनकी प्राचीनतामे विक्रमसंवत्को विक्रनकी मृत्युका मंवत् माननंकी बात और भी ज्यादा प्राचीन हो जाती है । विक्रनमंवतकी यह मान्यता अमिनगनिके वाद भी अर्से तक चली गई मालूप होती है। इसीये १५ वीं-१६ वीं शताब्दी तथा उसके करीबके बने हए ग्रन्थोंमें भी उसका उल्नेख पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं : मृत विक्रमभूपाले मानविंशनिसंयुने । दशपंचशनेऽन्दानामतीते शृणुनापरम् ॥१५७।। लुङ्कामतमभूदेकं................ ...........................॥१५८।। -रलनन्दिकृतभद्रबाहुचरित्र
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy