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________________ भ० महावीर और उनका समय २१ इसी तरह जारजका भी कोई चिन्ह शरीरमें दिखाई नहीं देता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय, और न महज्र व्यभिचारजात होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण इस धर्ममें 'अनार्य श्राचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है । वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्य जाति इस धर्मको प्रमीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नाम कर्मके उदयसे होती है, और इस दृष्टिसे सब मनुष्य समान हैं— श्रापसमे भाई भाई हैं - प्रौर उन्हें इस धर्मके द्वारा अपने विकासका पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है । इसके सिवाय, किसीके कुलमें कभी कोई दोष लग गया हो उसकी शुद्धिकी, और तककी कुलशुद्धि करके उन्हें अपनेमें मिला लेने तथा मुनि दीक्षा श्रादिके द्वारा ऊपर उठानेकी स्पष्ट श्राज्ञाएं भी इस शासनमें पाई जाती हैं X 1 और नास्तिजातिकृतो भेदो मनुष्यारणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ - महापुराणे, गुग्गणभद्रः । * चिह्नानि विजातस्य मन्नि नाङ्गषु कानिचित् । अनार्यमाचरन् किचिज्जायते नीचगोचर ॥ पद्मचरिते, रविषेण । 4 "मनुष्यजा तिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेद) हिताद्भेदाच्चातुविघ्यमिहास्नुते ।। ३८-४५ ।। - प्रादिपुराणे, जिनसेनः । "विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः ॥ - धर्म र सिके, मोममेनोद्धृतः । x जैसा कि निम्न वाक्योंमे प्रकट है: १. कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषरण । सोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ।। ४०-१६८ ।। तदाऽस्योपनयार्हत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ । न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥ - - १६६ ॥ २. स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानाद्यः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ।। ४२-१७६ ॥ - प्रादिपुराणे, जिनसेनः ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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