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________________ १४० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भिन्न कारणोंका भी संग्रह कर गये हैं ! इस विषयमें सिद्ध सेनगणी लिखते हैं__ "विंशतः कारणानां सूत्रकारेण किंचितसूत्रे किंचिद्भाष्ये किंचित् श्रादिग्रहणात सिद्धपूजा-क्षणलवध्यानभावनाख्यमुपात्तम् उपयुज्य च प्रवक्त्रा व्याख्येयम्।" अर्थात् --बीस कारणोंमेंसे सूत्रकारने कुछका सूत्रमें कुछका भाष्यमें और कुछका--सिद्धपूजा क्षणलवध्यानभावनाका-'पादि' शब्दके ग्रहणद्वारा संग्रह किया है, वक्ताको ऐसी ही व्याख्या करनी चाहिये। इस तरह पागमके साथ मूत्र की असंगतिको दूर करनेका कुछ प्रयत्न किया गया है; परन्तु इस तरह अमंगति दूर नही हो सकती--मिद्ध मेनके कथनमे इतना तो स्पष्ट ही है कि मूत्रमें बीमों कारणोंका उल्लेख नहीं हैं। और इमलिये उक्त सूत्रका आधार श्वेताम्बर श्रुत नहीं है । वास्तवमें इम सूत्रका प्रधान आधार दिगम्बर श्रुत है, दिगम्बर मूत्रपाठके यह 'बिलकुल समकक्ष है इतना ही नहीं बल्कि दिगम्बर आम्नायमे आमतौर पर जिन मोलह कारणोंकी मान्यता है उन्हींका इसमें निर्देश है । दिगम्बर खट्खण्डागमके निम्नसूत्रमे भी इसका भले प्रकार समर्थन होता है___ "दमण विमुझदाए विग्णयसंपण्णदाए सीलवदेसु णिरदिचार दाए श्रावासामु अपरिहीणदास खणलवपरिबुझणदार लद्धिसंवेगसंपण्णदाए यथागामे तथा तवे साहणं पासुअपरिचागदाप साहू समाहिसंधारणाए साहूणं वेजावच्चजागजुत्तदाए अरहंतभत्ताय बहुमुदभत्तीप पवयणभत्तीए परयणवच्छलदाए पवयणप्यभावणार अभिक्खणं गाणीवजागजुत्तदाए इच्चेोहि सोलसहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म बंधंनि ।" इस विषयका विशेष ऊहापोह पं० फूलचंदजी शास्त्रीने अपने 'तत्वार्थमूत्रका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखमें किया है, जो चौथे वर्ष के अनेकान्तकी किरगा १११२ (पृष्ठ ५८३-५८८) में मुद्रिन हुआ है । इमीमे यहां अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं समझी गई। (८) सातवें अध्याय का १६ वां सूत्र इस प्रकार है:
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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