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________________ श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १३६ वत्सलता, ८ मभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ६ दर्शननिरतिचारता, १० विनयनिरतिचारता, ११ आवश्यकनिरतिचारता, १२ शीलनिरतिचारता, १३ व्रतनिरतिचारता १४ क्षणलवसमाधि, १५ तपःसमाधि, १६ त्यागसमाधि, १७ वैय्यावृत्यसमाधि, १८ अपूर्वज्ञानग्रहण, १६ श्रुतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना, जैसाकि 'ज्ञाताधर्मकथांग' नामक श्वेताम्बर आगमकी निम्न गाथाओंमे प्रकट है: अरिहंत-सिद्ध-पथयण-गुरु-थेयर-बहुसुए तवस्सीसु । वच्छलया य एसिं अभिक्खनाणावागे अ॥ १॥ दसणविणए आवस्सए अ सीलवर निरइचारा । खणलवतवञ्चियाए वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वणाणगहणे सुय भत्ती पवयणे पहावणया । परहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीव। ।। ३ ।। इनमेंसे सिद्ध वत्सलता, गुरुवत्सलता, स्थविरवत्सलता, तपस्वि-वत्सलता, क्षणलवसमाधि और अपूर्व-ज्ञानग्रहण नामके छह कारण तो ऐसे हैं जो उक्त मूत्रमें पाये ही नहीं जाते; शेयमेंसे कुछ पूरे और कुछ अधूरे मिलते जुलते हैं। इसके मिवाय, उक्त सूत्र में अभीक्षणासंवेग, माधुममाधि और प्राचार्यभक्ति नामक तीन कारगा ऐसे हैं जिनकी गणना इन प्रागमकथित बीस कारणोंमें नहीं की गई है। ऐमी हालत में उक्त सूत्रका एकमात्र आधार श्वेताम्बर श्रुत (प्रागम) कैसे हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यहाँपर में इतना प्रौर भी बतला देना चाहता हूँ कि भाष्यकारने प्रवचनवत्सलत्वका ''अहेच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल-वृद्ध-तपस्वि-शेनग्लानादिनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति', ऐसा विलक्षण लक्षरण करके, इसके द्वारा उक्त बीस कारणोंमसे कुछ छूटे हुए कारणोंका संग्रह करना चाहा है; परन्तु फिर भी वे सब का संग्रह नहीं कर सके-सिद्धवत्सलता और क्षरणलवसमाधि जैसे कुछ कारण रह ही गये और कई * अर्थात्-'महन्तदेवके शासनका अनुष्ठान करनेवाले श्रुतधरों और बालवृद्ध -तपस्वि-शैक्ष तथा ग्लानादि जातिके मुनियोका जो संग्रह-उपग्रह-अनुग्रह करना है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है ।'
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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