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________________ जैन 'जगत् के उज्ज्वल तारे उसी समय उन्हों ने संथारा भी ले लिया। कुछ ही काल के वाद, उनका स्वर्गवास हो गया । उधर, धर्म-घोप मुनि बड़ी देर तक अपने शिष्य की बाट जोहते रहे । जब वे आते न दिखे, अपने अन्य शिष्यों को, उन की खोज में, उन्हों ने भेजा । बड़ी भारी खोड़ के पश्चात्. 혁 साधु वहाँ पहुँचे, जहाँ तपोधनी धर्म-रुचि णगार ने संथारा कर, समाधि प्राप्त की थी । धर्म-रुचि के शव को देख कर, उन्हें भी बड़ी वेदना हुई । अन्त में, वे मुनि के भण्डेोपकरण को अपने गुरु के निकट लाये । और, सारी घटना उन्होंने अपने गुरु से कह सुनाई । गुरु ने अन्य सम्पूर्ण मुनियों को निकट बुलाया। चारों ओर से धर्म रुचि के सद्गुणां की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी । गुरुदेव ने अपने पूर्व-ज्ञान द्वारा निष्कर्ष निकालते हुए कहा, "धर्म-रुचि, सर्वार्थ सिद्ध विमान में आकर उत्पन्न हुए हैं । वहाँ से एक भव और कर के, वे मोक्ष धाम को प्राप्त हो जावेंगे | "" सच है, विना तपाये सोने की परख कभी हो ही नहीं पाती । साधुओं का जन्म, परोपकार हो के लिए होता है । हज़ारों मन साधुता के सिद्धान्तों -भर को मानने की अपेक्षा, उस का रत्तीभर व्यवहार में लाना, अधिक श्रेष्ठ है; अधिक श्रेयस्कर है : आत्मा के अधिकतर निकट पहुँचने का मार्ग है; और, लोककल्याण के लिए अधिक उपयोगी है । I is 1
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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