SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-रुचि-यागार स्थान में पहुँचे। वहाँ भी, पहले, परीक्षा के लिए, केवल एक बूँद उस की उन्हों ने डाली। कुछ ही देर के बाद, उन्हों ने प्रत्यक्ष देखा कि बीसियों चीटियाँ वहाँ श्रा रही हैं; और, उस बूँद से लिपट लिपट कर छटपटाती हुई, अपने प्राणों का अन्त च कर रही हैं । श्रहिंसा के कट्टर अनुयायी, मुनि के मन को इस घटना से बाहरी चोट लगी । धर्म-रुचि मुनि ने, विष के समान विषैली उस साग को, अन्यत्र कहीं डालने की अपेक्षा, अपने पेट ही को, उस के लिए अधिक उपयुक्त और निर्वद्य स्थान देखा । अपनी श्रात्मपुकार की अवहेलना, अत्र अधिक काल तक, वे न कर सके । जो लोग 'परोपकाराय पुरुयाय, और पापायः परपीड़नम् ' के गूढ़ सिद्धान्त को, अपने जीवन में पड़-पद पर काम में लाते हैं, उन्हें अपने प्राणों का तनिक भी मोह नहीं होता । चे, प्रति पल, निर्भय और निश्चत हो कर मौत का सामना और स्वागत करने के लिए, उतारू रहते हैं । वे इस नश्वर जगत् में, अपनी थानेवाली पीढ़ियों के लिए, अपने समाज के लिए, एक आदर्श उदाहरण छोड़ जाने धुन में सदा रत रहते हैं । वे विश्व भर के प्राणियों को अपना ही परिवार समझते हैं । परम कृपालु मुनि भी इसी सिद्धान्त के अनुयायी थे । तव निरपराध प्राणियों को, कारण ही सताना तो उन्हें सुहाता ही कैसे था ! नाग-श्री के प्रति, रश्च मात्र भी प-भाव को हृदय में न लाते हुए, चिप के सदृश उस विषैली साग को, उन्हों ने हँसते-हँसते स्वयं पान कर लिया। पान करते ही उन के शरीर में असह्य वेदना उत्पन्न हो गई । समभावों से उस वेदना को उन्हों ने हँसते-हंसते सह लिया | [ 2 ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy