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________________ जैन जगत् के उज्वल तार - दोनों ने पुष्प चढ़ाये । प्रणाम किया। इतने ही में वे छहाँ उद्दण्ड मित्र, अर्जुन पर लपक पड़े । उसे बाँध गिराया। तब उस की पत्नी के साथ, भर-पेट अत्याचार उन्हों ने किया। अर्जुन ने लोह का चूंट पीकर, यह सारा अत्याचार अपनी आँखों देखा । अव उसे उस यक्ष की मूर्ति में ज़रा भी श्रद्धा और भक्ति न रही। वह उसे भाँति-भाँति से कोसने लगा। वालकपन से आज तक वह उस मूर्ति को सूर्ति नहीं, वरन् प्रत्यक्ष ही मानता पाया था। आज उस की वह भावना, खरहे के सींग के समान, उड़ गई। यूँ विचारों की उदग्र उथल-पुथल अर्जुन के मन में हो ही रही थी, कि इतने ही में एक अनहोनी घटना घटी । यक्ष से अव अपने भक्त का अधिक अपमान न देखा गया। तत्काल वह अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर गया। याक्षिकी शक्ति के प्रभाव से, अर्जुन ने अपने सुदृढ़ चन्धनों तक को, तडाक से तोड़ गिराया । लोह मुद्गर को उस ने हाथ में उठाई। अपनो स्त्री और छहों प्राततायी युवकों को उस ने धर पकड़ा। और, सदर के एक ही हाथ में उन का काम तमाम कर दिया। यही नहीं, अपनी उसी यानिकी शक्ति के प्रभाव से, वह, घूम-घूम कर, राजगृह के, उसी प्रकार सात व्यक्तियों के समूह को, प्रति दिन स्वाहा करने लगा । हवा की भाँति, अर्जुन की इस भयंकर हलचल ने,सारे शहर को हिला मारा। राजघोपणा हुई, कि नगर के बाहर, कोई भी व्यक्ति, घासफूस आदि लेने के लिए, कभी न जाया करे । . उन्हीं दिनों ' सुदर्शन' नाम के, श्रमणोपासक एक अति समृद्धिशाली सेठ भी वहीं रहते थे। जड़-चेतन का ज्ञान इन का प्रखर था। रात-दिन धार्मिक कृत्यों में ये रत रहते। अपनी [४६]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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