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________________ उदाई राजा अपने पुत्र को देने के इरादे से ही यहाँ श्राये हुए हैं।" जगत् केन ने कहा है, कि राजनीति, समय के अनुसार अपने रुख पलटा करती है । उसने किसी का भी विश्वास करना तो सीखा ही नहीं | यह सोच कर एक राज घोषणा उन्होंने उसी समय अपनी राजधानी में करवा दी, कि " श्राये हुए उदाई मुनि को कोई कभी भूल कर भी, श्राहार-पानी न बहरावे । श्रर न उन्हें निवास के लिए स्थान ही दे । राजाज्ञा की हलना करने पर प्राणान्त तक का कठोर दण्ड दिया जा संकेगा । " जान-बूझ कर अपने आप को मौत के मुँह में कौन डालना चाहेगा ! राजाशा के पालन करने का पूरा-पूरा प्रयत्न लोगों ने किया। प्रत्येक घर के स्वामी ने अपने-अपने घर के सामने ऐसे-ऐसे साधन जुटाये, कि जिससे वह घर मुनि की दृष्टि में श्रमता जान पड़े। वैशाख की प्रचण्ड तपन ने पृथ्वी को भार की कढ़ाई बना रक्खा था। वहीं दिन, मुनि के माससमण के पारगे का दिन भी था । घर-घर और दर-दर घूमतेघुमाते लगभग एक बज चुका । मुनि को कहीं से भी श्राहारपानी न बहराया जा सका । धूप की प्रचण्डता, पृथ्वी की, भयंकर तपन, और थकावट के त्रिताप से, मुनि को दाह ज्वर हो श्राया । राक्षसों की सघन बस्ती लंकापुरी में कोई एक-प्राध विभीषण रहता ही था । उसी प्रकार उस बस्ती में भी, एक दीन-हीन कुम्हार, मुनि की इस सन्तप्त दशा को और अधिक समय के लिये न देख सका। उसने उसी समय राजाशा को एक और ठुकरा दी । उसने बड़े ही प्रेम भाव से अपने हृदय को निकाल कर मुनि के चरणों में रक्खा । राजाशा के भंग करने में, उसने अपने सर्वस्त्रापहरण की रंचमात्र भी पर्वाह [१३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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