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________________ जंन जगत् के उजाल नारे कि ससार असार है । वहाँ का बड़े से बड़ा राज-भव हलाहल विप के सदृश है । तब भगवान महावीर के निकट, दीनित होने का उन्होंने मन में ठाना । चोर प्रभु उन दिनों चम्पा नगरी में थे । वहाँ से बिहार कर ये वित्तभयापाटण की और पधारे । महाराज ने इसे अपनी मनोकामना की सिद्धि का बड़ा ही सुन्दर सुयोग समझा । परन्तु इस के पहले. व इस पशीपेश में पड़ गये, कि राज का भार किस के कन्वों पर रक्खा जाय । अन्त में, उन्हों ने निश्चय किया, कि "इल राज-मुकुट को, जो सचमुच में प्राण-नाशक, नुकीले काँटों का ताज है. जो विप-रस-भरा कनक-घट जैसा है, अपने प्राण-प्रिय पुत्र को तो कभी नहीं पहनाऊँगा । क्योंकि, जिसे स्वयं में अपने ही लिए लोक तथा परलोक का नाशक समझता हैं, उससे मैं अपने ही पुत्र को दुखी और बेहोश क्यों कहँ।ऍलोच-समझ, अपने भांजे को वह राज उन्हों ने सौंप दिया । और, आपने स्वयं वीर प्रभु की शरण में जा, अपने लोक और परलोक की साधना के लिए, दीक्षा ग्रहण कर ली। छिछले विचार के पुत्र ने पिता के इस पवित्रतम कार्य में,अपने साथ घोर अन्याय हुआ मानाः अपना वड़े से बड़ा अपमान समझा। जिसके कारण, उत्स ने उस राज्य की सीमा के भीतर रहना तक पाप माना । और, अन्यत्र जा वसा । उधर प्राचार्य उड़ाई भी, तप और संयम का पूर्ण पालन करते हुए, गाँव-गाँव में विचरण करते और एक दिन धौपदेश देते-देते, उसी वित्तभयापाटण में आ पहुँचे। उनके भांजे राजा को उनके आगमन का सन्देश मिला। उन्होंने समझा, "मेरे मामाजी मुझ से राज्य को छीन कर,पुनः [१२]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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