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________________ जैन जगन् के उन्मल तारे वान् मुनि सुव्रत से उन्हान अाशा चाही। भगवान ने उन पर अचानक श्रान वाले उपसर्ग की बात उन्हें कह सुनाई । इतना ही नहीं भगवान् ने यह भी उन्हें कहा, कि " उस उपसर्ग से तुम्हारे साथी लोग तो पाराधिक चनंगे: परन्तु तुम्ही अकले विराधिक होगे।" होनहार हो कर ही रहती है। जो लोग अपने से ज्ञान तथा अनुभव में बड़े हैं, उन की हित-मयी बात को न मानने ले भी, अनेकों प्रकार को आपत्तियों का उन्हें अकारण ही सामना करना पड़ता है। स्कन्धाचार्य तथा उन के साथियों के सिर पर भी वही बलाय श्रा कर पड़ी. जो गुरुजनों की अनुभव-सिद्ध और हित-जनक वाणी को न माननेवालों के सिर, अचनक श्रा कर पड़ती है। स्कन्धाचार्य तथा उनके अन्य साथियों ने दरडकारण्य की ओर, प्रस्थान कर ही दिया । और, विहार पर विहार करते हुए, व एक दिन दण्डकारण्य प्रदेश की राजधानी के प्रसिद्ध उद्यान में जा विराजे। पुरोहित पालक ने कमार से बदला चुकालेने का इसे उड़ा ही सुन्दर सुयोग जाना । और, उस से पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहा । उसी रात को. मुनियों के ठहरने के ठीक पास ही में, उस ने बड़े ही भयंकर पूरे-पूरे पांच सौ अस्त्र-शस्त्र भूमि में गड़वा दिये। इतना ही नहीं. सुबह होते ही होते, वह राजा के सामने जा पहुँचा । उसने राई का पर्वत बना कर इस बात को राजा के आगे कही । वह बोला, " महाराज का भगवान् सदा भला करें । परन्तु समय बड़ा नाजुक है। जिसे आप अपना मानते और समझते हैं, वहीं आप का साला, जिसे आप अपना सच्चा सहायक भी कहते आये हैं, आज अपने चार [-] परन्तु समय बही आप का सामान अप
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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